प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
आज के दिन मैं आप लोगों से एक छोटी-सी बात कहना चाहता हूँ। क्योंकि जो माहौल है इसमें इतना सबकुछ हो रहा है और लोग डरे हुए हैं। और ये जो सीरीज़ मैं बना रहा हूँ ये है "हिम्मत का समय।" तो एक बात आपने सुनी हुई है, एक दोहा है, चौपाई है बल्कि कि —
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल में परिखिअहिं चारी।।
ये जो चार चीजें हैं — धीरज, धर्म, मित्र और नारी — अब जरा इसके बारे में मैं एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं। क्योंकि जब नारी कहा है तो नारी का मतलब सिर्फ नारी ही नहीं है। नारी का मतलब है कोई भी जिसके साथ आप रहते हैं दोस्त हो, आज के समाज में वही बात नहीं रह गयी है जो पहले होती थी तो जैसा भी है, जैसा भी माहौल में है, पर जो आपके साथ है। और मित्र, मित्र का मतलब सिर्फ दोस्त ही नहीं हुआ बल्कि मित्र वो भी है जो किसी भी तरीके से आपका सहयोग करता है। और धर्म, धर्म के बारे में तो बात स्पष्ट है। और मैं ज्यादा कहूंगा भी नहीं धर्म के बारे में। क्योंकि फिर लोग हैं तो उनको लगता है कि आपने मेरे धर्म के बारे में ये कह दिया, आपने मेरे धर्म के बारे में ये कह दिया, तो फिर लोगों को अच्छा नहीं लगता है। और फिर आती है बात धीरज की। वह आपके ऊपर है। किसी और का धीरज नहीं, आपका धीरज। धीरज में क्या-क्या है ? धीरज रखने के लिए किस-किसकी जरूरत है ? एक तो इस चीज की जरूरत है कि शांति हो अंदर। बिना शांति के धीरज कहां से लाएगा मनुष्य! और वो परखने की चीज हो कि कोई भी स्थिति जिसमें से गुजर रहे हैं यह मालूम होना चाहिए मनुष्य को कि यह भी गुजरेगी। कोई भी परिस्थिति हो।
अच्छा समय भी हो वह भी गुजरेगा। बुरा समय भी हो वह भी गुजरेगा। स्थानीय कोई भी चीज नहीं है इस संसार के अंदर। हरेक चीज बदलती है। हरेक चीज बदलती है। भगवान राम के साथ भी यही हुआ। जब वह पहले छोटे थे फिर बड़े हुए। फिर वह गए, जंगल में गए। उन्होंने दानवों को मारा। फिर वह आये, सीता के साथ और फिर उनको वनवास हुआ। सारी स्थिति, परिस्थिति बदलती गयी, बदलती गयी, बदलती गयी, बदलती गयी,बदलती गयी। स्थानीय कोई चीज नहीं थी। अच्छा समय भी आया और बुरा समय भी आया। मनुष्य को बुरे समय में इस बात का एहसास होना चाहिए कि यह भी टलेगा। और बुद्धिमान वो है कि जो अच्छे समय में भी इस बात को जानता है कि यह भी हमेशा नहीं रहेगी। अब अच्छा समय क्या है और बुरा समय क्या है ?
जब इच्छा अनुकूल सबकुछ होता है तो मनुष्य समझता है कि वह अच्छा समय है। और जब इच्छा के अनुकूल सबकुछ नहीं होता है तो उसको मनुष्य बुरा समय मानता है। पर जबतक यह स्वांस तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है तुम्हारा समय अच्छा है। यह बात है ज्ञानी की, अज्ञानी की नहीं। अज्ञानी को ये नहीं मालूम। अज्ञानी को तो ये भी नहीं मालूम कि यह स्वांस क्या है! अज्ञानी को तो ये भी नहीं मालूम कि इस स्वांस की कीमत क्या है। अज्ञानी को तो ये भी नहीं मालूम कि जो मेरे को मनुष्य शरीर मिला है यह कितना दुर्लभ है। लगा हुआ है मनुष्य कहीं इधर भाग रहा है, कहीं वहां भाग रहा है, कुछ ये कर रहा है, कुछ ये कर रहा है, जो कुछ भी। क्योंकि एक रेडियो बाहर होता है और एक रेडियो कान के बीच में चल रहा है। और दिन-रात, दिन-रात, दिन-रात, दिन-रात, दिन-रात, दिन-रात वो रेडियो चलता है। किसी ने ये कह दिया, किसी ने ये कह दिया मेरे को ये करना चाहिए, मेरे को वो करना चाहिए, इसी के बीच में चलता रहता है। मेरे लिए ये अच्छा नहीं है, मेरे लिए वो अच्छा नहीं है; मेरे को ये चाहिए, मेरे को वो चाहिए। तेरे को ये कर, तू ये कर, तू ये कर, अपना नाम रौशन कर। कहां नाम... क्या नाम रौशन करेगा ? जब एक दिन पृथ्वी ही नहीं रहनी है। जब एक दिन चन्द्रमा ही नहीं रहना है। जब एक दिन सूरज ही नहीं रहना है। जब एक दिन सबकुछ, जो कुछ भी है ये सब खत्म होना ही है, तो क्या नाम रौशन करने में लगे हुए हो! और किसका नाम हो गया रौशन ?
ऐसे भी लोग थे, बड़े-बड़े लोग हिन्दुस्तान में ही देख लो जब अंग्रेज आये तो उन्होंने बड़ी-बड़ी मूर्ति बनायी, क्वीन विक्टोरिया की। अब कहां हैं वो ? अब वो थोड़ी-बहुत जो बची हुई हैं कहीं हैं रखी हुईं उन पर कबूतर दिन-रात अपना काम कर रहे हैं। एक तो वो होता है जो सारी चीज को देखता है। क्या हुआ और क्या हो रहा है और आगे क्या होगा! एक चीज तो वो हैं न जो थी, जो है, जो रहेगी। और मनुष्य अपने को देखे कि मैं एक समय में नहीं था। अब मैं हूँ और एक ऐसा समय भी आएगा कि मैं नहीं हूँगा। अब ये कब आएगा, यह किसी को नहीं मालूम। हां, इतनी बात जरूर है कि आएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है। निःसंदेह यह सत्य है कि वह समय आएगा।
अब लोग हैं "अब हम क्या करें जी ? हमारे साथ ये है, हमारे साथ ये है, हमको ये चाहिए, हमको वो चाहिए।" और कितने ही लोग हैं, और कितने ही लोग हैं जो हमको चिट्ठी लिख रहे हैं कि "जी हमारा एक बच्चा है, वह सबकुछ ठीक ढंग से नहीं कर पाता है।"
देखो, सबसे पहली बात अब मैं ये बात इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मैं डॉक्टर हूँ, पर मेरा यह अनुभव है, क्योंकि मैंने इस बात का अनुभव किया हुआ है। किसी भी मनुष्य को, किसी भी मनुष्य को — दो चीजें हैं एक तो है प्रेम। मनुष्य दूसरे मनुष्य को अगर कुछ नहीं दे सके और प्रेम दे सके, प्रेम और इस समय मनुष्य को गुस्सा, एक-दूसरे को गुस्सा देने की, एक-दूसरे को तकलीफ देने की जरूरत नहीं है। इस समय एक-दूसरे को प्रेम देने की जरूरत है। ये मनुष्य एक-दूसरे को दे सकता है।
मैं जो, जो मेरा अनुभव है — जब हम छोटे थे तो एक लड़का था, वह आया। तो उसके माँ-बाप बहुत अमीर थे, परन्तु उसका दिमाग ठीक नहीं था। तो वह आया। तो अब जब मैं कह रहा हूं कि दिमाग ठीक नहीं था, तो सचमुच में ठीक नहीं था। एक तो वह अपने आपको काटता था। कुछ भी गलत हो तो अपने आपको काटता था। उससे तो बात भी नहीं की जा सकती थी। और जहां जाता था पेन इकट्ठा करता था और उसके जेब में इतने पेन रखे रहते थे कि पूछो मत। और बोतल, बोतल इकट्ठा करने का उसको बड़ा शौक था। तो जहां जाता था बोतल इकट्ठा करता था। तो जब वह आया तो हमने कहा कि "भाई यह तो हमारा घर है। हम यहां रहते हैं। आप इसको क्यों ले आये ?" तो खैर जैसा भी था वो वहां रहने लगा। तो धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे करके सबको उस पर तरस आने लगा। धीरे-धीरे करके सबने उसको प्रेम देना शुरू किया।अगर किसी के पास पेन था तो बजाय उससे मांगने के वह जब कोई भी उससे मांगता था पेन, उसका पेन तो वह बहुत ही गुस्से में आ जाता था और अपने को काटता था और खून निकलता था और उसके यहां चारों तरफ बहुत ही बुरा हाल था उसका। परन्तु धीरे-धीरे करके जब उसको वो प्रेम मिलने लगा, तब उसने वो पेन इकट्ठा करने की आदत छोड़ दी। धीरे-धीरे करके जब उसको आदर और प्रेम मिलने लगा तो उसने बोतल भी इकट्ठा करना बंद कर दिया बल्कि उसको अगर कहीं बोतल मिल भी जाए तो वह किसी को भी देने के लिए तैयार हो जाता था। एक समय था कि वह किसी को देता नहीं था। अगर किसी ने बोतल इधर से उधर भी रख दी तो वह एकदम चिल्लाने लगता था। परन्तु धीरे-धीरे-धीरे करके प्रेम उसको जैसे-जैसे मिला उसको फिर इन चीजों की जरूरत नहीं रही।
परिवार में एक-दूसरे को प्रेम क्यों नहीं देते हैं ? एक-दूसरे को ताना क्यों मारते हैं ? एक-दूसरे को गुस्सा करने की कोशिश क्यों करते हैं ? एक-दूसरे के गुण क्यों नहीं छीनते हैं बल्कि उनकी बुराइयों को देखते हैं। प्रेम की जरूरत है। धीरज की जरूरत है। और अगर धीरज नहीं है तो इस संसार में कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर होगी। और वो धीरज उसका समय आ गया है, हिम्मत का समय आ गया है, मनुष्य की असली हिम्मत का समय आ गया है। क्योंकि और चीजें कोई काम नहीं करेंगी। और चीजें कुछ काम नहीं करेंगी।
अब मौका जो हमको मिला पहले ही तो हमने वैक्सीन कर ली — दो, दो वैक्सीन। तो अब लोग हैं, "अजी हमको करनी चाहिए या नहीं चाहिए ?" भाई, क्यों नहीं करनी चाहिए ? और लोग हैं कोई, कोई अफवाह उड़ा रहा है, कोई-कोई अफवाह उड़ा रहा है। अभी किसी ने मेरे को चिट्ठी भेजी कि "जी, हमने सुना है कि आप बीमार हो गए!" हमको पहले ही वैक्सीन लगी हुई है, तो उस वैक्सीन से क्या होगा ?
हम तो गए, हिन्दुस्तान में गए। साउथ अफ्रीका में गए, ब्राज़ील में गए। ऐसी-ऐसी जगह गए जहां बहुत ही सबकुछ हो रहा था। हमको नहीं हुआ। क्योंकि मास्क हमने पहना। सबसे छह फुट, छह फुट से भी दूर का जो डिस्टेंस था वह हमने बनाकर रखा। हाथ हमने धोये। तो जो कहा गया था उसका हमने पालन किया। और हमको अच्छी तरीके से मालूम था कि ये इसलिए थोड़े ही कह रहे हैं कि ये हमको जानते हैं और हमको परेशान करना चाहते हैं। नहीं, हमारी भलाई के लिए। जो बात किसी की भलाई के लिए की जाती है अगर वो अपनी भलाई की बात को नहीं समझ सकता है, तो वो तो गया। ऐसे कैसे काम होगा! हिम्मत रखने का मतलब ही ये चीज है कि जो मनुष्य है वो सुने अफवाहों को नहीं, अफवाहों को नहीं, अफवाहों को अलग करे। वो सुने, उस बात को सुने जिससे कि उसका भला हो। सबसे बड़ी बात ये है। सबसे बड़ी बात ये है। ये बात लोग भूल जाते हैं। कोई फिर और बात सुनने लगता है, कोई और बात सुनने लगता है, कोई और बात सुनने लगता है। उससे फिर भ्रमित होता है मनुष्य। भ्रमित करने वाले भी तो थोड़े कम हैं। ना, उनकी तो इतनी आबादी हो गयी कि पूछो मत। कोई धर्म के नाम पर, कोई भगवान के नाम पर किसी को बेवकूफ बना रहा है। कोई गवर्नमेंट के नाम पर किसी को बेवकूफ बना रहा है। कोई पुलिस के नाम पर लोगों को बेवकूफ बना रहा है। कोई मिलिट्री के नाम पर लोगों को बेवकूफ बना रहा है। जहां देखो बेवकूफ बनानेवालों की कमी है ही नहीं। परन्तु अगर बेवकूफ बनानेवाले हैं तो कम से कम अगर किसी चीज की कमी होनी चाहिए, तो वो उनकी होनी चाहिए जो बेवकूफ बनते हैं।
अरे, बेवकूफ बनानेवाला भी अगर हो तो यह जरूरी थोड़े ही है कि बेवकूफ बनना है तुमको। क्यों! हिम्मत रखो। ठीक है, परिस्थितियां जैसी हैं वैसी हैं, परन्तु इनसे आगे चलने का हल तो हिम्मत की ही जरूरत है न। इस मनुष्य को, आज के मनुष्य को हमदर्दी भी चाहिए और हिम्मत भी चाहिए, क्योंकि आगे चलना है, पीछे नहीं, आगे चलना है हमेशा। अच्छे समय में आगे चलना है। बुरे समय में आगे चलना है। और आगे चलने की शक्ति तुमको कहां से मिलेगी ? हिम्मत की शक्ति तुमको कहां से मिलेगी ? यह किसी पहाड़ के ऊपर नहीं है। यह किसी पेड़ के ऊपर नहीं है। यह भी तुम्हारे अंदर है। और अगर अपने अंदर तुम इसको महसूस नहीं कर सकते हो तो फिर — धीरज धर्म मित्र अरु नारी। ये कैसे परख पाओगे कि कौन तुम्हारा हितैषी है!
अगर तुम यही नहीं जानते कि सबसे बड़ा हितैषी तुम्हारा तुम्हारे अंदर बैठा हुआ है। जो सबसे ज्यादा हित तुम्हारा जानता है, वह तुम्हारे अंदर है। और तुम उस चीज को स्वीकार करो अपने में जो सचमुच में ज्ञान है, अज्ञान नहीं, ज्ञान है। इस समय प्रकाश की जरूरत है, अंधेरे की नहीं। अंधेरे की एक बात है और इसका, इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो मनुष्य अंधेरे में बैठा है, बैठा है, बैठा है, बैठा है, बैठा है, बैठा है, वो अंधेरे का आदी हो जायेगा। अंधेरे का आदी होना क्या हुआ ? क्या मतलब हुआ इसका ? इसका मतलब ये हुआ कि जब प्रकाश होगा, जब प्रकाश होगा तो वो इतना आदी है अंधेरे का कि जब रोशनी उसकी तरफ आएगी तो वह अपनी आंखें बंद कर लेगा। क्योंकि वह देख नहीं पायेगा उस प्रकाश को वह कहेगा, "अहह! बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा है।" यह है अंधेरे का आदी बनने का नतीजा।
तुमको प्रकाश की जरूरत है जीवन में। प्रकाश तुमको दिखायेगा कि उस चीज से, जिस चीज से बचना है वह कहां है। अपने जीवन में, अपने जीवन को सफल बनाओ। हिम्मत रखो, आगे चलो क्योंकि यह तुम्हारा नियम है। तुम आये और एक दिन तुमको जाना है। कब जाना है यह तुमको नहीं मालूम। जबतक तुम जीवित हो, जीवित रहो।अंदर से जीयो, बाहर से ही नहीं, अंदर से जीयो। और इन चीजों की जरूरत है। हिम्मत की जरूरत है।
मेरे को मालूम है काफी सारे लोग हैं, जिन्होंने अपने प्यारों को खो दिया है। सचमुच में यह शोक की बात है, परन्तु फिर भी आगे चलना है। फिर भी आगे चलने की जरूरत है, चिंता करने की नहीं।
चिंता तो सतनाम की, और न चितवे दास,
और जो चितवे नाम बिनु, सोई काल की फांस।
इस समय में भी, यह तो बात बहुत साल पहले कही मैंने पर आज इसकी जरूरत और है। इसलिए सभी लोग हिम्मत रखें, आगे चलें और जो तुम्हारे अंदर शांति है उसको आने दो। जैसे होली के समय पानी जब पड़ता है तो आदमी भीगता है, उसी तरीके से "बरसन लाग्यो रंग शबद झड़ लाग्यो री।" उस ज्ञान को, उस शांति को अपने ऊपर आने दो और उसमें भीगो और जो अंदर का आनंद है उसको मत भूलो। चाहे कुछ भी हो जाए जो अंदर की शांति है उसको मत भूलो।
तो सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को मेरा नमस्कार!
और एक बात है कि —
भूले मन समझ के लाद लदनिया।
थोड़ा लाद, बहुत मत लादे, टूट जाए तेरी गरदनिया।।
भूखा होय तो भोजन पा ले आगे हाट ना बनिया।
प्यासा होय तो पानी पी ले आगे देश ना पनिया।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो काल के हाथ कमनिया।
क्या कह रहे हैं कबीरदास जी ?
कह रहे हैं कि जो करना है वो अब कर ले। आगे क्या होगा किसी को नहीं मालूम। क्या है आगे ? किसी को नहीं मालूम। यही बात जब आगे दोहराई जाती है तो लोगों को डर लगता है, क्या होगा! भाई, विश्वास करने की जरूरत है, समझने की जरूरत है कि किसने ये सारी रचना की और इसके अंदर जो कुछ भी सुंदरता है वो सब उपलब्ध कराई। जो मनुष्य को जिन चीजों की जरूरत थी या जिन चीजों की जरूरत है, वो चीजें सब मौजूद हैं। तो डर कैसे भी आ जाता है, क्योंकि जब आदमी समझता नहीं है, जब मनुष्य समझता नहीं है कि क्या हो रहा है ये वो भूल जाता है कि उस पर कितनी दया है। ये वो भूल जाता है कि जो कुछ भी हुआ इस जीवन के अंदर, वह एक मौका है। और मौका है आनंद लेने का। कल का नहीं है, परसों का नहीं है, नितरसों का नहीं है, पर जबतक यह स्वांस आ रहा है और जा रहा है, तबतक वो मौका है। और उसका पूरा-पूरा लाभ उठाना ये हमारा फर्ज़ बनता है।
तो इच्छायें तो बहुत हैं मनुष्य की। बहुत चीजें चाहता है वो। और ये भी कहा है —
चाह गई चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह,
जिनको कछु न चाहिए सोई शहंशाह।
अगर शहंशाह बनना है तो क्या — जो चाह गई चिंता मिटी
पर मनुष्य चिंता जब करता है तो वो भूल जाता है कि क्या-क्या उसके पास है। जब वो चिंता करता है, जब वो देखना शुरू करता है उन चीजों को, जो वो समझता है कि उसके पास नहीं हैं। जिस आनंद की मनुष्य कोशिश करता है अपने जीवन में, वो सच्चा आनंद उसके अंदर हमेशा है। चाहे कुछ भी हो, चाहे परिस्स्थितियां बदलें। अब ये जो मौका है, ये डरने का नहीं है। ये हिम्मत से काम लेने का है। आंखें खोलकर चलने का है। लोग हैं जो डरते हैं — अभी किसी ने मेरे को एक चिट्ठी भेजी, तो उसमें लिखा हुआ है कि "मेरी माँ भी अब नहीं रही.... लोग मेरी माँ को सताते थे। और ये सब होने वाबजूद भी वो आपके ज्ञान को अच्छी तरीके से समझना चाहती थी और उसका पालन करती थी, तो उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ?"
उसके जीवन में क्या है ये किसको मालूम है ? एक तो उसको मालूम है जिसका जीवन है। और ये एक उसको मालूम है जिसने ये जीवन दिया है। देखिये, सबसे बड़ी बात है लोग चाहते हैं कि जब रोशनी आये, तो रोशनी उनको वो दिखाए जो वो देखना चाहते हैं। पर रोशनी ये नहीं करती है। रोशनी वो दिखाती है, जो है। रोशनी कुछ नहीं बनाती है अपने में। ज्ञान रोशनी है। ज्ञान दिया जो है, जलता हुआ दिया है, जो रोशनी दे। क्या दिखाई देता है उसमें ? क्योंकि मनुष्य चाहता है अँधेरा रहे ताकि वो देख न सके। और अँधेरे के बारे में भी कुछ कहा जाए। तो अँधेरा भी एक ऐसी चीज है कि जैसे अँधेरा होता है आँख देखना चाहती है। कुछ भी हो आँख देखना चाहती है। तो जो आईरिस है आँख का वो खुलने लगता है, खुलने लगता है, खुलने लगता है, खुलने लगता है, तो वो इतना खुल जाता है कि अगर थोड़ी-सी भी रोशनी उस पर पड़े तो उसको चमका देने वाली बात होती है।
कई बार इतनी देर अँधेरा रहे, इतनी देर अँधेरा रहे तो फिर जब रोशनी होती है तो आदमी के लिए वो ठीक नहीं है। वह आँखें बंद करने लगता है। क्या हमारे जीवन के अंदर वही हो रहा है कि हम देख नहीं पा रहे हैं और अँधेरे के इतने आदी बन गए हैं कि जो प्रकाश है जब वो आता है तो वही हमको देखने के लिए रोक रहा है, उसी से चौंक जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। मनुष्य के जीवन के अंदर सबसे बड़ी बात कि जबतक तुम जीवित हो तुम्हारे जीवन के अंदर एक आशा होनी चाहिए। निराशा नहीं, आशा। जबतक तुम जीवित हो तो तुम उस चीज को देखो जो सत्य है, असत्य को नहीं। अगर सत्य को देखोगे तो तुमको असत्य से डरने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
परन्तु नजर कहां होनी पड़ेगी, कहां होनी चाहिए ? सत्य पर होनी चाहिए, असत्य पर नहीं। लोग हिम्मत हारने लगते हैं। लोग समझने लगते हैं अब क्या होगा! क्या होगा! हिम्मत से काम लो; डरो मत। डरो मत। जबतक तुम जिन्दा हो तबतक कोई न कोई चीज तुम्हारे अंदर है जिससे कि तुम अपने जीवन के अंदर समझ सकते हो कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ। लोग तो — "मैं अभागा हूँ। मेरे साथ ये हो गया, मेरे साथ ये हो गया, मेरे साथ ये हो गया!" परन्तु जबतक यह स्वांस आ रहा है, तुम भाग्यशाली हो। जबतक तुम जीवित हो तबतक भाग्यशाली हो। और अगर तुम ही डरने लगे तो तुम्हारे आस-पास जितने भी हैं, जो तुमसे प्रेम करते हैं, वो तो डरेंगे ही। और अगर वो भी डरने लगे और तुम भी डरने लगे और सभी डरने लगे तो डर बढ़ेगा। हिम्मत कौन करेगा ? जब समय अच्छा नहीं होता है, तब हिम्मत की जरूरत है, प्रकाश की जरूरत है और वो प्रकाश तुम्हारे अंदर है। उसको समझो, उसको जानो, उसको देखो। और यह मौका है जबतक तुम जीवित हो मैं ये कैसे कह सकता हूँ।
क्योंकि जबतक यह स्वांस आ रहा है जा रहा है, वो कृपा है उसको स्वीकार करो। तो अपने जीवन के अंदर ध्यान से, ख्याल से रहो ताकि तुम बीमार न पड़ो। और अगर बीमार पड़ भी गए तो हिम्मत से काम लो, ये नहीं डर से। क्योंकि जब डरोगे तो तुम्हारा शरीर और कमजोर होगा। डर से नहीं, हिम्मत से काम लो।
तो सभी लोगों को मेरा नमस्कार!
प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
और ये इस सीरीज़ में दूसरी वीडियो है। तो कल हमने जिस बात की चर्चा की, एक तो बात की कानूनों की कि देश के कानून होते हैं, पुलिस के कानून होते हैं। कानून तो बहुत होते हैं। परिवार में भी कानून होते हैं। और एक कानून है प्रकृति का, इसके बारे में हमने बात की। उसको मैं थोड़ा और आगे ले जाना चाहता हूं। क्योंकि एक तरफ से देखा जाये तो जो कुछ भी हमारे आस-पास हो रहा है, इससे हम प्रभावित होते हैं। जब हमारे इच्छानुसार चीजें होती हैं तो हमको खुशी होती है। जब इच्छानुसार चीजें नहीं होती हैं तो हमको दुख होता है।
परंतु प्रकृति के लिए कोई खेल नहीं है यह कि वो प्रकृति हमको दुखी करना चाहती है या हमको खुश करना चाहती है। प्रकृति तो वो कर रही है जो उसको करना है, जो करते आयी है। हजारों-करोड़ों साल हो गये हैं पृथ्वी घूमती है, सूरज चमकता है, चंद्रमा है। और रात भी होती है दिन भी होता है। और एक मनुष्य है जो आता है, जो जाता है। परंतु मनुष्य होने का मतलब क्या है ? जीवित होने का मतलब क्या है ? तो एक दोहा है मैं आपको सुनाता हूं कि —
मानुष तेरा गुण बड़ा, मांस न आवै काज
कह रहे हैं कि — “हे मनुष्य तेरा गुण है, परंतु वो क्या है, वो तेरा मांस नहीं है, वो किसी काम का नहीं है, वो किसी काम नहीं आयेगा, उसको कोई खायेगा नहीं।’’
हाड़ न होते आभरण,
तेरे, तेरे से आभूषण नहीं बन सकते हैं, तेरे से कपड़े नहीं बन सकते हैं और
त्वचा न बाजन बाज।
और तेरी खाल से कोई ड्रम नहीं बजायेगा, ढोलक नहीं बनेगी। तो तेरा जो गुण है वो क्या गुण है ? जो बड़ा गुण है तेरा, वो क्या है ?
तो संत-महात्माओं ने हमेशा यही बात समझाने की कोशिश की है कि भाई, तुम आये हो, तुम हो यहां इस संसार में। ठीक है, तुम व्यस्त हो, इसमें, यह कर रहे हो, वो कर रहे हो। तुमको नौकरी करनी है। ठीक है, अब नौकरी क्यों करनी है ? यह भी बात स्पष्ट है। और नौकरी इसलिए करनी है क्योंकि तुमको छत चाहिए अपने सिर के ऊपर, खाना चाहिए और ये सारी चीजें मिला करके तुमको नौकरी करनी है। क्योंकि धन कमाना है, क्योंकि धन से फिर तुम खाना खरीद सकते हो, मकान खरीद सकते हो, कपड़ा खरीद सकते हो, ये सारी चीजें कर सकते हो। और इस संसार में लोग इसी चीज को मानकर चलते हैं।
परंतु बात स्पष्ट यह नहीं है कि क्या यही मकसद है मनुष्य का इस संसार में आने के लिए कि वो इस संसार में आये और इस संसार में आने के बाद वो नौकरी करे और नौकरी के बाद वो धन कमाये और उस धन की कमी को महसूस करे। जब भी, जब भी कोई दूसरे को देखेगा जो उससे ज्यादा धन कमाता है तो वह अपने आप ही महसूस करेगा कि मैं भी इतना ही धन कमाना चाहता हूं। अपने आपको छोटा मानेगा। तो कबीरदास जी कहते हैं कि —
मानुष तेरा गुण बड़ा।
क्या है वो गुण ?
मांस न आवै काज।
तेरा मांस तो किसी काम का है नहीं।
हाड़ न होते आभरण।
तेरे से कोई कपड़े तो बनेंगे नहीं और
त्वचा न बाजन बाज।
और ये जो तेरी खाल है, इससे कोई यंत्र तो बनेगा नहीं जिसको बजा सकें। तो तेरा ये जो गुण है, ये है क्या — जो बड़ा गुण है वो क्या है ?
अच्छा, एक बात मैं कहूंगा क्योंकि ये जो नौकरी की बात है, मैं ये नहीं कह रहा हूं कि ये अच्छी बात है या बुरी बात है या ऐसा है या वैसा है। पर मैं एक बात कहना चाहता हूं कि जब से मनुष्य इस पृथ्वी पर आया है, जब से मनुष्य इस पृथ्वी पर आया है, तब से आज तक ज्यादा लोगों ने नौकरी नहीं की। ये नौकरी का जो सवाल बना है, ये हाल ही में बना है। कुछ ही साल पहले ये बना है। उससे पहले लोग नौकरी नहीं करते थे। जीवित रहते थे, बिलकुल रहते थे। अगर उनको भूख लगती थी तो जाते थे फल तोड़ते थे, जो खाना मिलता था, जंगल से या उसको खाते थे। जब प्यास लगती थी तो पानी था। कोकोकोला नहीं थी, पानी था। कॉफी नहीं थी, पानी था। चाय नहीं थी, पानी था। और इन चीजों को ले करके आज जो मनुष्य है वो है। क्योंकि बात तो यही है कि —
चलन-चलन सब कोई कहे, मोहि अंदेशा और।
नाम न जाने गांव का, पहुंचेंगे कहि ठोर।।
अब सभी लगे हुए हैं कि चलो, चलो, चलो, चलो, चलो, चलो, पर कहां जा रहे हैं ? सारी दुनिया, “हमको नौकरी करनी है, हमको ये करना है, हमको वो करना है, ये करना है!” सबकी लिस्ट है। सबकी लिस्ट है। और सब देशों में लिस्ट है। जापान के लोग भी हैं, ऑस्ट्रेलिया के लोग भी है, अमेरिका के लोग भी हैं, हिन्दुस्तान के लोग भी हैं। सब जगह, सबकी लिस्ट है। ये करना है, वो करना है, ये करना है, वो करना है। सभी, सभी यही करते हैं। सवेरे-सवेरे उठते हैं। नौकरी पर जाते हैं। दोपहर में खाने के लिए बैठते हैं। शाम को घर आते हैं, खाना खाते हैं, थोड़ी-बहुत बात करते हैं, फिर सो जाते हैं। फिर सवेरे उठते हैं और वही उनका चक्कर चलता रहता है।
परंतु यह मनुष्य शरीर मिला क्यों ? इससे करेंगे क्या ? यह किस चीज का साधन है, किस चीज का दरवाजा है ? क्या ऐसी चीज है जिसको हम आनंद कह सकते हैं ? क्या ऐसी चीज है, क्योंकि चक्की के लिए यह मिला है। चक्की चलाने के लिए ही क्या यह मिला है या किसी और चीज के लिए मिला है ? यह मैं नहीं कहूंगा। मैं सिर्फ आपको इंस्पायर कर रहा हूं, प्रेरणा दे रहा हूं कि आप सोचिये। क्योंकि भेड़ की तरह, अगर एक भेड़ कुएं में कूद गयी और दूसरी भी कूद गयी, तीसरी भी कूद गयी, चौथी भी कूद गयी, पांचवीं भी कूद गयी और ऐसे करते-करते हजार भेड़ भी अगर कुएं में कूद गयीं, तो वो सही नहीं है। वो सही नहीं है। चाहे हजार कूद गयी उस कुएं में भेड़, इसका यह मतलब नहीं है कि वो गलत हो रहा है, गलत तो है।
तो यह जो कुछ हो रहा है, इस संसार के अंदर जो सब कर रहे हैं। क्योंकि सब कर रहे हैं तो वो ठीक नहीं है। क्योंकि सब कर रहे हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वो ठीक हो गया। क्या कारण है जो यह मनुष्य शरीर मिला है ? क्यों सबकुछ होने के बावजूद भी मनुष्य खुश नहीं है ? क्या ऐसी चीज है कि एक छोटा-सा कीटाणु, एक छोटी-सी वायरस इसने इस सारे संसार को हिला के रख दिया!
अरे, बड़े-बड़े देश जो कहते थे “देखो जी हमारी परेड हो रही है, हमारे इतने हेलीकॉप्टर हैं, हमारे इतने फाइटर जेट हैं, इतने हमारे सोल्जर्स हैं, सिपाही हैं, ये है, वो है, सब सलूट मार रहे हैं।” मारो सलूट, मारो सलूट! कौन-सी गोली से इसको उड़ाओगे। हैं, इतना, इतना सबकुछ खतम करने के लिए, तबाह करने के लिए। एक-दूसरे को तबाह करने के लिए इतना सबकुछ किया है मनुष्य ने और ये छोटा-सा कीटाणु आया जो इतना सूक्ष्म है कि आंख से भी नहीं दिखाई देता और सबको हिलाकर रख दिया। बड़े-बड़े देशों को हिलाकर रख दिया। इतना कमजोर... तो अब प्रश्न यह आता है कि मनुष्य इतना ताकतवर है या इतना कमजोर है ? इतना सबकुछ होने के बाद भी क्या मनुष्य ताकतवर है या कमजोर है ?
तो जब अपने गुण को ही नहीं समझा मनुष्य ने तो कमजोर तो होगा ही। क्योंकि जो, जिस चीजों में मनुष्य लगा हुआ है, उस चीजों के लिए मनुष्य नहीं बना है कि यह —
नर तन भव वारिध कहुं बेरो।
इस भवसागर से पार उतरने का यह साधन है।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।
इस स्वांस का आना-जाना ही मेरी कृपा है। तो कौन इस्तेमाल कर रहा है इसको, भवसागर पार करने के लिए ? नहीं, सारी दुनिया तो खड़ी हुई है, भवसागर में डूबने के लिए।
अच्छा, यह कोरोना वायरस आया, गवर्नमेंट ने कहा, “भाई, आइसोलेशन में जाओ।” ‘आइसोलेशन में जाओ’ का मतलब — “बाहर मत जाओ, अपने घर में रहो।” नहीं रह सकते। फिर घर बनाया ही क्यों है ? जब उसमें रहना ही नहीं है, तो घर बनाया ही क्यों है ? तो घर इसलिए बनाया है क्योंकि उसकी जरूरत है। इसीलिए तो, यही तो बात मैं कह रहा था पहले कि छत चाहिए, छत चाहिए तो इसलिए घर है पर उसमें रहना नहीं चाहते। उसमें रहने के लिए गवर्नमेंट ने कह दिया कि ‘बाहर मत जाना।’ ना, हमसे नहीं रहा जायेगा; हम तो बाहर जायेंगे। तो मनुष्य मनुष्य के साथ नहीं रह सकता, अपने साथ नहीं रह सकता। औरों के साथ रहने की उसकी इच्छा है। औरों के साथ उठना-बैठना उसके लिए ठीक है। औरों के साथ बात करना, गप्प मारनी, उसके लिए यह मनुष्य समझता है कि वो ठीक है।
किसी ने कह दिया, किसी ने कह दिया कि “मनुष्य सोशल एनीमल है।’’ तो सभी उस पर, मंत्र पढ़ रहे हैं। हां जी, सोशल एनीमल है, सोशल एनीमल है, सोशल एनीमल है, सोशल एनीमल है। उसको औरों की जरूरत है, उसको सोसायटी की जरूरत है। अरे, इतने सालों से सोसायटी थी ही नहीं। आज क्या जरूरत हो गयी है उसको ? मैं अच्छे-बुरे की बात नहीं कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। मैं यह कह रहा हूं कि जो अभाव मनुष्य महसूस कर रहा है, वो क्यों कर रहा है, क्योंकि वो अपने आपको नहीं जानता। अगर वो अपने आपको जानता तो उसको इन चीजों से डर नहीं लगेगा। इन चीजों के होने के बावजूद भी, वो अपने साथ रह सकता है, क्योंकि वो अपने आपको जानता है। जब मनुष्य ही अपने आपको अजनबी समझता है, तो किसको समझेगा वो। किसी को भी नहीं समझेगा।
बड़े-बड़े लोग हैं। बड़े-बड़े भाषण देते हैं। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं परंतु उसका कोई प्रभाव होता है ? कुछ प्रभाव नहीं होता है। कुछ प्रभाव नहीं होता है। हमारे संत-महात्माओं ने तो कहा है कि “इस सारे संसार को अपना कुटुंब मानो।’’ यह तो बात हजारों साल पहले कही गयी है। हजारों साल पहले कही हुई बात भी आज लागू नहीं हो रही है इस संसार के अंदर क्योंकि क्या सचमुच में कोई भी इस संसार को कुटुंब मान रहा है। एक-दूसरे से लड़ने के लिए तैयार हैं। ये बड़ी-बड़ी जो फौजें हैं वो काहे के लिए हैं ? माला पहनाने के लिए हैं, एक-दूसरे का स्वागत करने के लिए हैं या एक-दूसरे से लड़ाई करने के लिए हैं। और वो दिखाते हैं कि हमसे मत लड़ना, हमसे मत लड़ना, हमारे पास ये है, हमारे पास ये है, हम तबाह कर देंगे, हम ये कर देंगे, हम वो कर देंगे। और इस संसार के अंदर तो सबसे बड़ी बात है “म्यूचुअल एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन’’ कि हम, तुम अगर हमको मारोगे तो हम तुमको मार देंगे। तो हम तो मरेंगे ही पर तुमको भी मारेंगे। मैड - Mad का एक दूसरा भी मतलब होता है कि “पागल’’ और ये दुनिया की रीत बनायी हुई है।
ये समझते हैं लोग कि ये सबकुछ होने के लिए हम आगे बढ़ेंगे। बात आगे बढ़ने की नहीं है, बात अंदर जाने की है। वहां तुमको क्या मिलेगा ? अपने आपको जानना मिलेगा। जब तुम अपने आपको जानोगे, तब तुम समझ पाओगे कि तुम्हारा गुण क्या है। क्योंकि तुम्हारे अंदर करूणा भी है, दया भी है, समझना भी है, समझाना भी है। खुश होना भी तुम्हारे अंदर है। क्योंकि अब तो ये है ना कि ये दुनिया हमको दुखी कर रही है। ना, दुख भी तुम्हारे अंदर है और सुख भी तुम्हारे अंदर है, इसका दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है। और जिस दिन तुम यह बात जान जाओगे और इस बात को स्वीकार कर लोगे पूरी तरीके से कि दुख भी तुम्हारे अंदर है और सुख भी तुम्हारे अंदर है तो फिर दुखी होने की क्या बात है।
फिर वो खोजो। खोदो उस चीज को जो तुम्हारे अंदर है जिससे कि तुम खुश हो सकते हो। रोना भी तुम्हारे अंदर है, हंसना भी तुम्हारे अंदर है। तुम समझते हो कि ये सारी चीजें बाहर से आती हैं। जिस दिन तुम यह समझ जाओगे कि ये बाहर से नहीं आती हैं ये तुम्हारे अंदर हैं। परेशानी भी तुम्हारे अंदर है। जिस दिन तुम यह समझ जाओगे कि परेशान तुमको कोई बाहर वाला नहीं कर रहा है, तुम ही खुद कर रहे हो अपने आपको उस दिन तुम्हारी दुनिया बदल जायेगी। सारी की सारी दुनिया बदल जायेगी क्योंकि फिर तुम दुनिया को उस तरीके से नहीं देखोगे। दोस्ताना किससे करोगे जो तुम्हारे अंदर बैठा है उससे दोस्ताना करोगे। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारे दोस्त बाहर नहीं होंगे। होंगे, पर उनसे क्या अपेक्षा करोगे वो बात बदल जायेगी। और किसी भी कारण अगर तुमको अपने साथ होना पड़ा तो तुमको उससे दुख नहीं होगा, उससे खशी होगी। सारी चीजें छोड़ करके अगर अपने साथ रहने के लिए, किसी मजबूरी के कारण, चाहे वो कोरोना वायरस हो या कुछ भी हो, अगर तुमको होना पड़ा तो तुम उसके लिए दुखी नहीं होगे। तो यह बात समझने की है। तुम अगर जान जाओ कि तुम कौन हो, तुम्हारा गुण क्या है।
ये जिस, जिस, जिस चमड़ी को तुम रगड़ते रहते हो। कभी गोरा करते हो, कभी कुछ करते हो, कभी कुछ करते हो। सजाते हो इसको ताकि दुनिया देखे कि तुम कितने सुंदर हो। कबीरदास जी कहते हैं — इससे तो कोई ढोलक भी नहीं बजा सकता। किसी काम की नहीं है यह। क्या करेंगे इसको या तो दफना देंगे या जला देंगे या बहा देंगे। जिसको तुमने इतना रगड़ा, इतना रगड़ा, इतना रगड़ा, इतना साफ किया, इतना ये किया, इतना वो किया उसको सजाया-धजाया, ये किया, वो किया किसी काम की नहीं। हिन्दुस्तान में कितने गहने हैं, लोग पहनते हैं। कोई अपने दांत पर लगाता है सोना। कोई सोने की माला बनाता है और इस शरीर को सजाते हैं कि देखो हम कितने सुंदर हैं। और होना क्या है एक दिन, कुछ नहीं बचेगा। कुछ नहीं बचेगा।
तो अपने गुण को समझो कि अपना असली गुण क्या है! अपने आपको जानने की कोशिश करो। क्योंकि अगर अपने आपको जान नहीं पाओगे, जो कुछ हो रहा है ये तुम्हारे कभी समझ में नहीं आयेगा। क्यों हो रहा है ? लोग कहेंगे क्या हमारे पिछले जन्म का कर्म था यह ? पिछले जन्म के कर्मों में फंस जाते हैं लोग। तुमको क्या मालूम कि तुम पिछले जन्म में थे या नहीं थे, तुमको क्या मालूम।
भगवान कहते हैं, कृष्ण भगवान कहते हैं अर्जुन से कि “अर्जुन तेरे-मेरे में यही अंतर है। मेरे को सबकुछ याद है, तेरे को कुछ याद नहीं रहेगा।’’ तो जब याद ही नहीं रहेगा तो फिर क्या मालूम। यह कभी बात समझ में नहीं आयेगी कि क्या सचमुच में यह स्वांस का आना-जाना ही बनाने वाले की कृपा है। बिलकुल! जब युद्ध पूरा हुआ तो एक प्रथा थी। प्रथा यह थी कि जब रथ आयेगा वापिस तो सबसे पहले जो रथ को चलाने वाला है, वो उतरेगा और चला जायेगा। और फिर जो योद्धा है, वो उतरेगा फिर उसको माला पहनायी जायेगी, लोग उसकी जय-जयकार करेंगे, सबकुछ होगा उसका। आदर-सत्कार होगा। तो उस आदर-सत्कार में कोई बाधा न पड़े इसलिए रथी जो है वो उस रथ से उठकर चला जायेगा, पहले।
तो जब भगवान कृष्ण उस रथ को लाये, तो उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं, अर्जुन पहले तुम इस रथ से नीचे जाओ, तुम उतरो बाद में मैं उतरूंगा।’’ तो लोगों के समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों ? तो अर्जुन ने कहा, “जी, ये तो, ये तो बात विपरीत, जो प्रथा है उसके विपरीत है।’’ तो भगवान कृष्ण ने कहा कि “तेरी समझ में आ जायेगा, तू वही कर जो मैं कह रहा हूं।’’ तो अर्जुन पहले उतरा उसका स्वागत हुआ, सबकुछ हुआ जब वो थोड़ा-सा दूर हुआ तब वो नीचे उतरे और जैसे ही वो नीचे उतरे तो सारा का सारा जो रथ था एकदम फट गया। आग से फट गया। सबको बड़ा अचम्भा हुआ ऐसा क्यों ? तो कहा कि “इस रथ पर इतने ब्रह्मस्त्र चले कि इसका फटना तो होना ही था।’’ परंतु मैं हूं एक, भगवान कृष्ण कहते हैं कि “मैं हूं एक जिन्होंने अपने ताकत से इस रथ को एक रखा, फटने नहीं दिया। और जैसे ही मैं इस रथ से निकला, ये फट गया।’’
जबतक इस आशीर्वाद का इस रथ पर, इस रथ पर आना-जाना है। क्योंकि इसका रथी कौन है, इसको कौन चला रहा है, जो चला रहा है उसने इसको एक रखा हुआ है। जैसे ही वो निकलेगा यह रथ किसी काम का नहीं रहेगा। तुम हो अर्जुन जो समझते हो कि तुम्हारी वजह से यह रथ चल रहा है। पर यह तुम्हारी वजह से नहीं चल रहा है। तुम इस रथ में बैठे हुए बहुत कुछ कर सकते हो। और अपने जीवन को सफल कर सकते हो। परंतु जिस दिन वो जो इस रथ को चला रहा है, जब वो उतरेगा तो तुम कुछ नहीं कर पाओगे।
यह तो है फैक्ट, यह तो है सही बात। इसको समझो और यह जो समय है धीरज, धीरज से, अपने अंदर शांति बनाये रखो। बाहर जो हो रहा है, वो हो रहा है, तुम अपने अंदर शांति बनाये रखो। डरो मत, डर की बात नहीं होनी चाहिए। यह समय भी गुजरेगा। आनंद लो, इस जीवन के अंदर यह जो चीज तुम्हारे अंदर चल रही है इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ और अपने असली गुण को समझो।
तो सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
और ये इस सीरीज़ में दूसरी वीडियो है। तो कल हमने जिस बात की चर्चा की, एक तो बात की कानूनों की कि देश के कानून होते हैं, पुलिस के कानून होते हैं। कानून तो बहुत होते हैं। परिवार में भी कानून होते हैं। और एक कानून है प्रकृति का, इसके बारे में हमने बात की। उसको मैं थोड़ा और आगे ले जाना चाहता हूं। क्योंकि एक तरफ से देखा जाये तो जो कुछ भी हमारे आस-पास हो रहा है, इससे हम प्रभावित होते हैं। जब हमारे इच्छानुसार चीजें होती हैं तो हमको खुशी होती है। जब इच्छानुसार चीजें नहीं होती हैं तो हमको दुख होता है।
परंतु प्रकृति के लिए कोई खेल नहीं है यह कि वो प्रकृति हमको दुखी करना चाहती है या हमको खुश करना चाहती है। प्रकृति तो वो कर रही है जो उसको करना है, जो करते आयी है। हजारों-करोड़ों साल हो गये हैं पृथ्वी घूमती है, सूरज चमकता है, चंद्रमा है। और रात भी होती है दिन भी होता है। और एक मनुष्य है जो आता है, जो जाता है। परंतु मनुष्य होने का मतलब क्या है ? जीवित होने का मतलब क्या है ? तो एक दोहा है मैं आपको सुनाता हूं कि —
मानुष तेरा गुण बड़ा, मांस न आवै काज
कह रहे हैं कि — “हे मनुष्य तेरा गुण है, परंतु वो क्या है, वो तेरा मांस नहीं है, वो किसी काम का नहीं है, वो किसी काम नहीं आयेगा, उसको कोई खायेगा नहीं।’’
हाड़ न होते आभरण,
तेरे, तेरे से आभूषण नहीं बन सकते हैं, तेरे से कपड़े नहीं बन सकते हैं और
त्वचा न बाजन बाज।
और तेरी खाल से कोई ड्रम नहीं बजायेगा, ढोलक नहीं बनेगी। तो तेरा जो गुण है वो क्या गुण है ? जो बड़ा गुण है तेरा, वो क्या है ?
तो संत-महात्माओं ने हमेशा यही बात समझाने की कोशिश की है कि भाई, तुम आये हो, तुम हो यहां इस संसार में। ठीक है, तुम व्यस्त हो, इसमें, यह कर रहे हो, वो कर रहे हो। तुमको नौकरी करनी है। ठीक है, अब नौकरी क्यों करनी है ? यह भी बात स्पष्ट है। और नौकरी इसलिए करनी है क्योंकि तुमको छत चाहिए अपने सिर के ऊपर, खाना चाहिए और ये सारी चीजें मिला करके तुमको नौकरी करनी है। क्योंकि धन कमाना है, क्योंकि धन से फिर तुम खाना खरीद सकते हो, मकान खरीद सकते हो, कपड़ा खरीद सकते हो, ये सारी चीजें कर सकते हो। और इस संसार में लोग इसी चीज को मानकर चलते हैं।
परंतु बात स्पष्ट यह नहीं है कि क्या यही मकसद है मनुष्य का इस संसार में आने के लिए कि वो इस संसार में आये और इस संसार में आने के बाद वो नौकरी करे और नौकरी के बाद वो धन कमाये और उस धन की कमी को महसूस करे। जब भी, जब भी कोई दूसरे को देखेगा जो उससे ज्यादा धन कमाता है तो वह अपने आप ही महसूस करेगा कि मैं भी इतना ही धन कमाना चाहता हूं। अपने आपको छोटा मानेगा। तो कबीरदास जी कहते हैं कि —
मानुष तेरा गुण बड़ा।
क्या है वो गुण ?
मांस न आवै काज।
तेरा मांस तो किसी काम का है नहीं।
हाड़ न होते आभरण।
तेरे से कोई कपड़े तो बनेंगे नहीं और
त्वचा न बाजन बाज।
और ये जो तेरी खाल है, इससे कोई यंत्र तो बनेगा नहीं जिसको बजा सकें। तो तेरा ये जो गुण है, ये है क्या — जो बड़ा गुण है वो क्या है ?
अच्छा, एक बात मैं कहूंगा क्योंकि ये जो नौकरी की बात है, मैं ये नहीं कह रहा हूं कि ये अच्छी बात है या बुरी बात है या ऐसा है या वैसा है। पर मैं एक बात कहना चाहता हूं कि जब से मनुष्य इस पृथ्वी पर आया है, जब से मनुष्य इस पृथ्वी पर आया है, तब से आज तक ज्यादा लोगों ने नौकरी नहीं की। ये नौकरी का जो सवाल बना है, ये हाल ही में बना है। कुछ ही साल पहले ये बना है। उससे पहले लोग नौकरी नहीं करते थे। जीवित रहते थे, बिलकुल रहते थे। अगर उनको भूख लगती थी तो जाते थे फल तोड़ते थे, जो खाना मिलता था, जंगल से या उसको खाते थे। जब प्यास लगती थी तो पानी था। कोकोकोला नहीं थी, पानी था। कॉफी नहीं थी, पानी था। चाय नहीं थी, पानी था। और इन चीजों को ले करके आज जो मनुष्य है वो है। क्योंकि बात तो यही है कि —
चलन-चलन सब कोई कहे, मोहि अंदेशा और।
नाम न जाने गांव का, पहुंचेंगे कहि ठोर।।
अब सभी लगे हुए हैं कि चलो, चलो, चलो, चलो, चलो, चलो, पर कहां जा रहे हैं ? सारी दुनिया, “हमको नौकरी करनी है, हमको ये करना है, हमको वो करना है, ये करना है!” सबकी लिस्ट है। सबकी लिस्ट है। और सब देशों में लिस्ट है। जापान के लोग भी हैं, ऑस्ट्रेलिया के लोग भी है, अमेरिका के लोग भी हैं, हिन्दुस्तान के लोग भी हैं। सब जगह, सबकी लिस्ट है। ये करना है, वो करना है, ये करना है, वो करना है। सभी, सभी यही करते हैं। सवेरे-सवेरे उठते हैं। नौकरी पर जाते हैं। दोपहर में खाने के लिए बैठते हैं। शाम को घर आते हैं, खाना खाते हैं, थोड़ी-बहुत बात करते हैं, फिर सो जाते हैं। फिर सवेरे उठते हैं और वही उनका चक्कर चलता रहता है।
परंतु यह मनुष्य शरीर मिला क्यों ? इससे करेंगे क्या ? यह किस चीज का साधन है, किस चीज का दरवाजा है ? क्या ऐसी चीज है जिसको हम आनंद कह सकते हैं ? क्या ऐसी चीज है, क्योंकि चक्की के लिए यह मिला है। चक्की चलाने के लिए ही क्या यह मिला है या किसी और चीज के लिए मिला है ? यह मैं नहीं कहूंगा। मैं सिर्फ आपको इंस्पायर कर रहा हूं, प्रेरणा दे रहा हूं कि आप सोचिये। क्योंकि भेड़ की तरह, अगर एक भेड़ कुएं में कूद गयी और दूसरी भी कूद गयी, तीसरी भी कूद गयी, चौथी भी कूद गयी, पांचवीं भी कूद गयी और ऐसे करते-करते हजार भेड़ भी अगर कुएं में कूद गयीं, तो वो सही नहीं है। वो सही नहीं है। चाहे हजार कूद गयी उस कुएं में भेड़, इसका यह मतलब नहीं है कि वो गलत हो रहा है, गलत तो है।
तो यह जो कुछ हो रहा है, इस संसार के अंदर जो सब कर रहे हैं। क्योंकि सब कर रहे हैं तो वो ठीक नहीं है। क्योंकि सब कर रहे हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वो ठीक हो गया। क्या कारण है जो यह मनुष्य शरीर मिला है ? क्यों सबकुछ होने के बावजूद भी मनुष्य खुश नहीं है ? क्या ऐसी चीज है कि एक छोटा-सा कीटाणु, एक छोटी-सी वायरस इसने इस सारे संसार को हिला के रख दिया!
अरे, बड़े-बड़े देश जो कहते थे “देखो जी हमारी परेड हो रही है, हमारे इतने हेलीकॉप्टर हैं, हमारे इतने फाइटर जेट हैं, इतने हमारे सोल्जर्स हैं, सिपाही हैं, ये है, वो है, सब सलूट मार रहे हैं।” मारो सलूट, मारो सलूट! कौन-सी गोली से इसको उड़ाओगे। हैं, इतना, इतना सबकुछ खतम करने के लिए, तबाह करने के लिए। एक-दूसरे को तबाह करने के लिए इतना सबकुछ किया है मनुष्य ने और ये छोटा-सा कीटाणु आया जो इतना सूक्ष्म है कि आंख से भी नहीं दिखाई देता और सबको हिलाकर रख दिया। बड़े-बड़े देशों को हिलाकर रख दिया। इतना कमजोर... तो अब प्रश्न यह आता है कि मनुष्य इतना ताकतवर है या इतना कमजोर है ? इतना सबकुछ होने के बाद भी क्या मनुष्य ताकतवर है या कमजोर है ?
तो जब अपने गुण को ही नहीं समझा मनुष्य ने तो कमजोर तो होगा ही। क्योंकि जो, जिस चीजों में मनुष्य लगा हुआ है, उस चीजों के लिए मनुष्य नहीं बना है कि यह —
नर तन भव वारिध कहुं बेरो।
इस भवसागर से पार उतरने का यह साधन है।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।
इस स्वांस का आना-जाना ही मेरी कृपा है। तो कौन इस्तेमाल कर रहा है इसको, भवसागर पार करने के लिए ? नहीं, सारी दुनिया तो खड़ी हुई है, भवसागर में डूबने के लिए।
अच्छा, यह कोरोना वायरस आया, गवर्नमेंट ने कहा, “भाई, आइसोलेशन में जाओ।” ‘आइसोलेशन में जाओ’ का मतलब — “बाहर मत जाओ, अपने घर में रहो।” नहीं रह सकते। फिर घर बनाया ही क्यों है ? जब उसमें रहना ही नहीं है, तो घर बनाया ही क्यों है ? तो घर इसलिए बनाया है क्योंकि उसकी जरूरत है। इसीलिए तो, यही तो बात मैं कह रहा था पहले कि छत चाहिए, छत चाहिए तो इसलिए घर है पर उसमें रहना नहीं चाहते। उसमें रहने के लिए गवर्नमेंट ने कह दिया कि ‘बाहर मत जाना।’ ना, हमसे नहीं रहा जायेगा; हम तो बाहर जायेंगे। तो मनुष्य मनुष्य के साथ नहीं रह सकता, अपने साथ नहीं रह सकता। औरों के साथ रहने की उसकी इच्छा है। औरों के साथ उठना-बैठना उसके लिए ठीक है। औरों के साथ बात करना, गप्प मारनी, उसके लिए यह मनुष्य समझता है कि वो ठीक है।
किसी ने कह दिया, किसी ने कह दिया कि “मनुष्य सोशल एनीमल है।’’ तो सभी उस पर, मंत्र पढ़ रहे हैं। हां जी, सोशल एनीमल है, सोशल एनीमल है, सोशल एनीमल है, सोशल एनीमल है। उसको औरों की जरूरत है, उसको सोसायटी की जरूरत है। अरे, इतने सालों से सोसायटी थी ही नहीं। आज क्या जरूरत हो गयी है उसको ? मैं अच्छे-बुरे की बात नहीं कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। मैं यह कह रहा हूं कि जो अभाव मनुष्य महसूस कर रहा है, वो क्यों कर रहा है, क्योंकि वो अपने आपको नहीं जानता। अगर वो अपने आपको जानता तो उसको इन चीजों से डर नहीं लगेगा। इन चीजों के होने के बावजूद भी, वो अपने साथ रह सकता है, क्योंकि वो अपने आपको जानता है। जब मनुष्य ही अपने आपको अजनबी समझता है, तो किसको समझेगा वो। किसी को भी नहीं समझेगा।
बड़े-बड़े लोग हैं। बड़े-बड़े भाषण देते हैं। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं परंतु उसका कोई प्रभाव होता है ? कुछ प्रभाव नहीं होता है। कुछ प्रभाव नहीं होता है। हमारे संत-महात्माओं ने तो कहा है कि “इस सारे संसार को अपना कुटुंब मानो।’’ यह तो बात हजारों साल पहले कही गयी है। हजारों साल पहले कही हुई बात भी आज लागू नहीं हो रही है इस संसार के अंदर क्योंकि क्या सचमुच में कोई भी इस संसार को कुटुंब मान रहा है। एक-दूसरे से लड़ने के लिए तैयार हैं। ये बड़ी-बड़ी जो फौजें हैं वो काहे के लिए हैं ? माला पहनाने के लिए हैं, एक-दूसरे का स्वागत करने के लिए हैं या एक-दूसरे से लड़ाई करने के लिए हैं। और वो दिखाते हैं कि हमसे मत लड़ना, हमसे मत लड़ना, हमारे पास ये है, हमारे पास ये है, हम तबाह कर देंगे, हम ये कर देंगे, हम वो कर देंगे। और इस संसार के अंदर तो सबसे बड़ी बात है “म्यूचुअल एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन’’ कि हम, तुम अगर हमको मारोगे तो हम तुमको मार देंगे। तो हम तो मरेंगे ही पर तुमको भी मारेंगे। मैड - Mad का एक दूसरा भी मतलब होता है कि “पागल’’ और ये दुनिया की रीत बनायी हुई है।
ये समझते हैं लोग कि ये सबकुछ होने के लिए हम आगे बढ़ेंगे। बात आगे बढ़ने की नहीं है, बात अंदर जाने की है। वहां तुमको क्या मिलेगा ? अपने आपको जानना मिलेगा। जब तुम अपने आपको जानोगे, तब तुम समझ पाओगे कि तुम्हारा गुण क्या है। क्योंकि तुम्हारे अंदर करूणा भी है, दया भी है, समझना भी है, समझाना भी है। खुश होना भी तुम्हारे अंदर है। क्योंकि अब तो ये है ना कि ये दुनिया हमको दुखी कर रही है। ना, दुख भी तुम्हारे अंदर है और सुख भी तुम्हारे अंदर है, इसका दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है। और जिस दिन तुम यह बात जान जाओगे और इस बात को स्वीकार कर लोगे पूरी तरीके से कि दुख भी तुम्हारे अंदर है और सुख भी तुम्हारे अंदर है तो फिर दुखी होने की क्या बात है।
फिर वो खोजो। खोदो उस चीज को जो तुम्हारे अंदर है जिससे कि तुम खुश हो सकते हो। रोना भी तुम्हारे अंदर है, हंसना भी तुम्हारे अंदर है। तुम समझते हो कि ये सारी चीजें बाहर से आती हैं। जिस दिन तुम यह समझ जाओगे कि ये बाहर से नहीं आती हैं ये तुम्हारे अंदर हैं। परेशानी भी तुम्हारे अंदर है। जिस दिन तुम यह समझ जाओगे कि परेशान तुमको कोई बाहर वाला नहीं कर रहा है, तुम ही खुद कर रहे हो अपने आपको उस दिन तुम्हारी दुनिया बदल जायेगी। सारी की सारी दुनिया बदल जायेगी क्योंकि फिर तुम दुनिया को उस तरीके से नहीं देखोगे। दोस्ताना किससे करोगे जो तुम्हारे अंदर बैठा है उससे दोस्ताना करोगे। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारे दोस्त बाहर नहीं होंगे। होंगे, पर उनसे क्या अपेक्षा करोगे वो बात बदल जायेगी। और किसी भी कारण अगर तुमको अपने साथ होना पड़ा तो तुमको उससे दुख नहीं होगा, उससे खशी होगी। सारी चीजें छोड़ करके अगर अपने साथ रहने के लिए, किसी मजबूरी के कारण, चाहे वो कोरोना वायरस हो या कुछ भी हो, अगर तुमको होना पड़ा तो तुम उसके लिए दुखी नहीं होगे। तो यह बात समझने की है। तुम अगर जान जाओ कि तुम कौन हो, तुम्हारा गुण क्या है।
ये जिस, जिस, जिस चमड़ी को तुम रगड़ते रहते हो। कभी गोरा करते हो, कभी कुछ करते हो, कभी कुछ करते हो। सजाते हो इसको ताकि दुनिया देखे कि तुम कितने सुंदर हो। कबीरदास जी कहते हैं — इससे तो कोई ढोलक भी नहीं बजा सकता। किसी काम की नहीं है यह। क्या करेंगे इसको या तो दफना देंगे या जला देंगे या बहा देंगे। जिसको तुमने इतना रगड़ा, इतना रगड़ा, इतना रगड़ा, इतना साफ किया, इतना ये किया, इतना वो किया उसको सजाया-धजाया, ये किया, वो किया किसी काम की नहीं। हिन्दुस्तान में कितने गहने हैं, लोग पहनते हैं। कोई अपने दांत पर लगाता है सोना। कोई सोने की माला बनाता है और इस शरीर को सजाते हैं कि देखो हम कितने सुंदर हैं। और होना क्या है एक दिन, कुछ नहीं बचेगा। कुछ नहीं बचेगा।
तो अपने गुण को समझो कि अपना असली गुण क्या है! अपने आपको जानने की कोशिश करो। क्योंकि अगर अपने आपको जान नहीं पाओगे, जो कुछ हो रहा है ये तुम्हारे कभी समझ में नहीं आयेगा। क्यों हो रहा है ? लोग कहेंगे क्या हमारे पिछले जन्म का कर्म था यह ? पिछले जन्म के कर्मों में फंस जाते हैं लोग। तुमको क्या मालूम कि तुम पिछले जन्म में थे या नहीं थे, तुमको क्या मालूम।
भगवान कहते हैं, कृष्ण भगवान कहते हैं अर्जुन से कि “अर्जुन तेरे-मेरे में यही अंतर है। मेरे को सबकुछ याद है, तेरे को कुछ याद नहीं रहेगा।’’ तो जब याद ही नहीं रहेगा तो फिर क्या मालूम। यह कभी बात समझ में नहीं आयेगी कि क्या सचमुच में यह स्वांस का आना-जाना ही बनाने वाले की कृपा है। बिलकुल! जब युद्ध पूरा हुआ तो एक प्रथा थी। प्रथा यह थी कि जब रथ आयेगा वापिस तो सबसे पहले जो रथ को चलाने वाला है, वो उतरेगा और चला जायेगा। और फिर जो योद्धा है, वो उतरेगा फिर उसको माला पहनायी जायेगी, लोग उसकी जय-जयकार करेंगे, सबकुछ होगा उसका। आदर-सत्कार होगा। तो उस आदर-सत्कार में कोई बाधा न पड़े इसलिए रथी जो है वो उस रथ से उठकर चला जायेगा, पहले।
तो जब भगवान कृष्ण उस रथ को लाये, तो उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं, अर्जुन पहले तुम इस रथ से नीचे जाओ, तुम उतरो बाद में मैं उतरूंगा।’’ तो लोगों के समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों ? तो अर्जुन ने कहा, “जी, ये तो, ये तो बात विपरीत, जो प्रथा है उसके विपरीत है।’’ तो भगवान कृष्ण ने कहा कि “तेरी समझ में आ जायेगा, तू वही कर जो मैं कह रहा हूं।’’ तो अर्जुन पहले उतरा उसका स्वागत हुआ, सबकुछ हुआ जब वो थोड़ा-सा दूर हुआ तब वो नीचे उतरे और जैसे ही वो नीचे उतरे तो सारा का सारा जो रथ था एकदम फट गया। आग से फट गया। सबको बड़ा अचम्भा हुआ ऐसा क्यों ? तो कहा कि “इस रथ पर इतने ब्रह्मस्त्र चले कि इसका फटना तो होना ही था।’’ परंतु मैं हूं एक, भगवान कृष्ण कहते हैं कि “मैं हूं एक जिन्होंने अपने ताकत से इस रथ को एक रखा, फटने नहीं दिया। और जैसे ही मैं इस रथ से निकला, ये फट गया।’’
जबतक इस आशीर्वाद का इस रथ पर, इस रथ पर आना-जाना है। क्योंकि इसका रथी कौन है, इसको कौन चला रहा है, जो चला रहा है उसने इसको एक रखा हुआ है। जैसे ही वो निकलेगा यह रथ किसी काम का नहीं रहेगा। तुम हो अर्जुन जो समझते हो कि तुम्हारी वजह से यह रथ चल रहा है। पर यह तुम्हारी वजह से नहीं चल रहा है। तुम इस रथ में बैठे हुए बहुत कुछ कर सकते हो। और अपने जीवन को सफल कर सकते हो। परंतु जिस दिन वो जो इस रथ को चला रहा है, जब वो उतरेगा तो तुम कुछ नहीं कर पाओगे।
यह तो है फैक्ट, यह तो है सही बात। इसको समझो और यह जो समय है धीरज, धीरज से, अपने अंदर शांति बनाये रखो। बाहर जो हो रहा है, वो हो रहा है, तुम अपने अंदर शांति बनाये रखो। डरो मत, डर की बात नहीं होनी चाहिए। यह समय भी गुजरेगा। आनंद लो, इस जीवन के अंदर यह जो चीज तुम्हारे अंदर चल रही है इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ और अपने असली गुण को समझो।
तो सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
आज जिस स्थिति में काफी सारे लोग हैं, सचमुच में हमदर्दी की बात है कि ऐसा हो रहा है जगह-जगह कि जो शांति है वो मनुष्य उस तक पहुंच नहीं पा रहा है। तो उसके बारे में ये जो कोविड केस है, इसके बारे में मैं काफी कुछ कहना चाहता हूं। क्योंकि कई बार इस संसार में रहते हुए एक हालत बन जाती है मनुष्य की, और हालत कुछ ऐसी है कि अंधेरे में रहते-रहते, रहते-रहते, रहते। अंधेरे में रहते, रहते, रहते कुछ ऐसा हो जाता है इतनी आदत पड़ जाती है अंधेरे की कि जब रोशनी आती है तो मनुष्य उस रोशनी की तरफ देख नहीं पाता है। उसको अपना चेहरा या अपनी आंखें कहीं दूसरी तरफ करनी पड़ती हैं। तो कई बार मनुष्य के साथ यही हाल हो जाता है कि अंधेरे में रहते-रहते, इस संसार के अंदर रहते-रहते सच क्या है और सच क्या नहीं है। जो असत्य है, सत्य है इसमें वो अंतर देख नहीं पाता है, क्योंकि एक तरफ देखा जाये तो बहुत सारे कानून हैं। तो देश के कानून हैं, शहर के कानून हैं, पुलिस के कानून हैं, मिलिट्री के कानून हैं। कानून ही कानून हैं। और इन कानूनों में, कानूनों में रहते-रहते-रहते हमको लगता है कि यही कानून है।
परंतु एक और कानून है और वो प्रकृति का कानून है। ये कानून जो कुछ भी मनुष्य बनाता है इसको वो बदल भी सकता है और बदलने की सभी कोशिश करते ही हैं। जब कोई कानून तोड़ता है तो वो “अजी, माफ कर दो, अब अगली बार नहीं होगा।” तो जो प्रकृति का कानून है उसके साथ ये सब नहीं चलता है। उस प्रकृति के कानून में सबको बंधे रहना है, चाहे वो कोई भी हो, चाहे वो अमीर हो, चाहे वो गरीब हो। क्योंकि जो आजकल के कानून हैं वो अमीर लोगों के लिए कम हैं गरीब लोगों के लिए ज्यादा हैं। अब गरीब बेचारा क्या करे उसको तो रहना है जैसा रहना है। अब उसको बचाने के लिए भी कौन आयेगा। तो बड़े-बड़े वकील किये जाते हैं जो अमीर लोग हैं वो करते हैं वो बहस करते हैं। सत्य को झूठ बताते हैं झूठ को सत्य बताते हैं कई बार और लोग निकल जाते हैं।
परंतु मनुष्य उस प्रकृति के कानून से उसका कोई वकील नहीं है उसके लिए जो कुछ भी कानून है प्रकृति के वो सबके लिए लागू हैं। चाहे वो जीव हों, चाहे वो मनुष्य हो, चाहे वो अमीर हो, चाहे वो गरीब हो, चाहे वो अच्छा हो, चाहे वो बुरा हो। क्योंकि अच्छा-बुरा का भी जो कानून है ये मनुष्य ने ही बनाया है और अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून हैं। कोई बांये चलता है रोड पर, कोई दांये चलता है रोड पर। ये भी कानून हैं परंतु ये मनुष्यों के बनाये हुए हैं, सोशल सोसायटी के ये कानून बनाये हुए हैं।
परंतु बात फिर आती है... दो बातें हो गयीं, एक तो जो कानून है। और दूसरी बात कि अंधेरे में इतना, अंधेरे की इतनी आदत पड़ गयी है कि जब प्रकाश आने लगता है, जब लाइट आने लगती है तो आदमी देख नहीं पाता। आज जो हालत बनी हुई है सारे संसार के अंदर। एक छोटे-से कीटाणु को लेकर इतना छोटा कि उसको आंख से भी नहीं देखा जा सकता, वायरस। परंतु क्यों ? इसका एक हल है बड़ा साधारण-सा हल है -- मास्क पहनो, हाथ धोओ और आइसोलेशन में रहो। ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। और जब समय आये तो जो वैक्सीन है, वो दवाई -- वैक्सीन लें और फिर सब ठीक है। परंतु ये काम मनुष्य नहीं कर पा रहा है।
मास्क पहनना क्यों ? हमने -- जब हम छोटे थे हमने तो बहुत देखा जो जैन धर्म को मानने वाले थे वो सब मास्क पहनकर चलते थे तो ये कोई नयी चीज नहीं है। और मास्क पहना तो उससे जो फायदा होगा वो यह है कि वायरस से बच सकते हैं। हाथ धोयें ताकि आंख से, नाक से, कुछ खुजाने से वो वायरस तुम पर नहीं आये। परंतु मास्क नहीं पहनते हैं लोग। क्यों नहीं पहनते हैं ? अगर जो डॉक्टर सर्जरी कर रहा है अगर वो कहने लगे कि मेरे को मास्क नहीं पहनना है, मैं मास्क नहीं पहनूंगा। तो कहेंगे “नहीं, नहीं, नहीं जी डॉक्टर साहब आप जरूर मास्क पहनियेगा।” तो डॉक्टर के लिए तो अनिवार्य है मास्क पहनना, परंतु जो मनुष्य है उसके लिए कठिन हो जाता है। क्यों?
आइसोलेशन की बात आती है लोग चाहते हैं कि सबकुछ वैसा हो जैसे हो रहा था। तो जैसे हो रहा था, उसी रास्ते से तो ये वायरस आयी। अरे, कुछ तो फर्क होना चाहिए, कुछ तो फर्क पड़ना चाहिए। और सबसे बड़ा फर्क ये पड़ना चाहिए कि मनुष्य अपने आपको समझे। वो औरों के साथ रहना स्वीकार करने में उसको कोई दिक्कत नहीं है। औरों के साथ रहने में उसको कोई दिक्कत नहीं है, परंतु अपने साथ रहने में मनुष्य को दिक्कत है। अब आप बताइये ये सही बात है या गलत बात है! औरों के साथ रहना उसको स्वीकार है। औरों के साथ ये करना, वो करना, पार्टी में जाना, ये करना, वो करना क्योंकि सबसे बड़ी चीज मनुष्य के लिए अब क्या हो गयी है और मैं एक देश की बात नहीं कर रहा हूं मैं सब जगह की बात कर रहा हूं। बोर्डम, बोर होना। करने के लिए कुछ नहीं है।
मैं पढ़ता हूं कि लोग लिखते हैं कि “बहुत बोर्डम हो गयी है, अब हम नहीं रह सकते इस तरीके से।” क्योंकि अपने साथ रहने की जो विधि है वो मनुष्य भूल गया है। वो ये भूल गया है कि वो चीजों का अनुभव कर सकता है जो प्रकृति की सुंदरता जो बनाने वाले ने सुंदरता बनायी है इसकी वो, इसका सेवन कर सकता है। परंतु नहीं, क्यों ? क्या बंदर बिठा दिया सबके पीठ के पीछे -- सोशल मीडिया। अब जहां जाओ, जहां जाओ, लोग अपना फोन लिये बैठे हैं टक-टक, टक-टक, टक घंटो-घंटो टक-टक, टक-टक, टक-टक, टक-टक, टक-टक, क्यों ? बोर्डम नहीं चाहिए। बोर हो जायेंगे, बोर्डम नहीं चाहिए। ये बोर्डम आयी कहां से, भाई एक समय था कि लोगों के पास फोन नहीं थे लोग भजन-अभ्यास करते थे, गुणगान करते थे, सोचते थे, विचारते थे। प्रकृति को देखते थे और उसका आनंद लेते थे। वो भी मनुष्य थे, वो भी जीते थे। खाना वो भी खाते थे। और हम भी मनुष्य हैं, खाना हम भी खाते हैं। प्रकृति वही है। हो सकता है कि नदी दूसरे रास्ते से चलती हो पर नदी तो नदी है। समुद्र समुद्र है। हमने नाम रख दिये हैं। अलग-अलग नाम। हो सकता है उस समय वो नाम नहीं हों। परंतु समुद्र तो समुद्र था। पहाड़ पहाड़ थे। किसी ने तो देखा वो पहाड़ है, कितना सुंदर है उसमें से बर्फ है, ये सबकुछ चीजें, प्रकृति को देखना, उसके बारे में सोचना, अपनी जिंदगी के बारे में सोचना कि मैं कौन हूं, कहां से आया, कहां जाऊंगा!
यही जो हम सुनते हैं, पढ़ते हैं। ये बात तो आपने मेरे मुंह से बहुत बार सुनी होगी --
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
तो किसी ने तो अपने अंदर झांक के देखा होगा, ये कहने से पहले। ये बात अगर आज दुनिया को बोरिंग लगती है तो कुछ गड़बड़ है। क्योंकि ये बोरिंग बात नहीं है कि जो -- विधि हरि हर -- ब्रह्मा विष्णु और महेश भी जिसका ध्यान करते हैं।
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
तो क्या इसकी जरूरत है। जब वो बैठा है, जब वो अंदर है और वही एक सहारा है क्योंकि क्या होगा जिसके लिए तुम सारा दिन दौड़ते हो, जिस माया के लिए सारे दिन तुम दौड़ते रहते हो, अंत समय में ये माया क्या करेगी -- बॉय-बॉय, जाओ। एक ही है जो था, जो है, जो रहेगा। अगर उसको नहीं पहचानने की कोशिश की तो फिर फायदा क्या हुआ। ये आने का, जाने का फायदा क्या हुआ। व्यस्त रहना, ये तो चींटी भी जानती है। कभी चींटी को देखा है व्यस्त रहती है। मधुमक्खी भी जानती है, व्यस्त रहती है। कभी यहां जाती है, कभी वहां जाती है। उस फूल के पास जाती है, उस फूल के पास जाती है। उसमें देखती है कि शहद है या नहीं है। ये तो सबको मालूम है। फिर मनुष्य का जो शरीर है ये क्यों धारण किया ? क्यों ये है! इससे क्या मनुष्य जान सकता है ? तो बात है कि --
भूले मन समझ के लाद लदनियां।
थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टूट जाये तेरी गरदनियां।।
गरदन टूट रही है, सबकी, सबकी। ये महामारी जो है ये सबको, सबको परेशान करके बैठी है। हमको भी परेशान करने लगी। कैसे ? अब कहां जायेंगे, क्या होगा, कैसे होगा, ये होगा, वो होगा। हमको भी लगा कि “भाई, कुछ न कुछ तो ये बीमारी है अब ये कहीं जाने नहीं देगी।” मैंने कहा, नहीं, अपने आपसे हमने कहा -- धीरज रखो, धीरज रखो। तो मौका मिला। यूरोप में भी थे पिछले साल। इस साल गये, अभी जो मैं वापस आया हूं तो गया था मैं ब्राज़ील गया, ब्राज़ील के बाद केपटाउन गया, केपटाउन के बाद बार्सिलोना गया, बार्सिलोना के बाद वापस आया। तो मौका मिला। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, मौका मिला। जो बदलना है वो मेरी रफ्तार से नहीं बदलेगा वो अपनी रफ्तार से बदलेगा। जो धुन बज रही है, जो धुन बज रही है अगर मैं गाना चाहता हूं अपना साज़ बजाना चाहता हूं तो मेरे को भी उसी धुन में बजाना पड़ेगा। अगर मैं अलग से बजाने लगूं तो सुनने में वो अच्छा नहीं लगेगा और यही बात है।
तो लोग हैं, कोई किसी को, अब धीरज कौन रखेगा ? ये धीरज, धीरज रखने की तो बात ही नहीं है। उस स्थान पर आओ ये करो, वो करो, सबकुछ, सबकुछ हो रहा है। स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल परंतु जो आनंद लेने का स्केजुअल है, जो हृदय भरने का स्केजुअल है इसके बारे में क्या करोगे। तो मैं क्या कह रहा हूं कि मनुष्य को अंधेरे की इतनी आदत पड़ सकती है कि जब रोशनी आये तो वो उसको देख ना पाये। अपने से ये पूछना है कि कहीं तुम्हारे साथ यही तो नहीं हो रहा है। डर नहीं। सबको डर लगता है अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। धीरज रखो, धीरज रखो। जो उसका कानून है, जो प्रकृति का कानून है इसको कोई नहीं तोड़ सकता। इसके लिए कोई वकील नहीं है। आज मनुष्य को क्या हो गया है, क्या कर दिया है मनुष्य ने। अंधेरे में रहते-रहते, अंधेरे में रहते-रहते भगवान को इंसान बना दिया। भगवान को इसकी जरूरत है, भगवान को उसकी जरूरत है, उसको ये चाहिए, उसको ये चाहिए, तुम ये करो, तुम वो करो, ऐसा करो, वैसा करो, वहां जाओ, ये करो। भगवान को इंसान बना दिया। और हां जी, इंसान को भगवान बना दिया। अंधेरे में ये होता है। उजाले में क्या होता है कि --
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
उजाले में ये होता है। अंधेरे में क्या होता है ? पता नहीं जी! भगवान कैसा है, उसको इंसान बना दो। जो, जो सब जगह रहता है। जो सब जगह रहता है, जो सर्वव्यापी है, उसके लिए घर बना दिया। वो कहां बैठेगा, वो तो सब जगह है। ऊपर भी है, नीचे भी है। पानी में भी है, वायु में भी है। पृथ्वी में भी है, पेड़ में भी है। पौधे में भी है। मनुष्य में भी है, जानवर में भी है। सब जगह है। उसके लिए क्या बना दिया, उसके लिए घर बना दिया। जिसको घर की जरूरत ही नहीं है। तो भगवान को बना दिया है इंसान, इंसान को बना दिया है भगवान। बड़े-बड़े नाम दे दिये। परंतु जिस दिन वो कानून आयेगा वो ऐसा उठायेगा कैसे कि --
भूले मन समझ के लाद लदनियां।
थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टूट जाये तेरी गरदनियां।।
और इसकी आखिरी पंक्ति क्या है --
कहत कबीर सुनो भाई साधो, काल के हाथ कमनिया।।
और वो जिसको पकड़ लेगा, पकड़ लेगा। रख दिया, रख दिया अब कोई भी हो। बड़े-बड़े हैं, लेटे हुए हैं। भक्त आ रहे हैं हाथ जोड़ रहे हैं। कोई आशीर्वाद देने के लिए नहीं है क्योंकि जो आशीर्वाद दे रहा था वो तो चले गया, पर अंधेरे में ये होता है। जब आंख बंद की हुई है जिसको कहते हैं अंधविश्वास -- उसमें यही होता है।
और अब तो कितने लोग डरे हुए हैं। कुछ भी कह दो लोगों को। यहां तक कह दो कि तुम एक पत्ते पर किसी का नाम लिख दो तो तुम ठीक हो जाओगे, लोग करने के लिए तैयार हैं। ये सोचने के लिए तैयार नहीं हैं कि इससे मेरा क्या होगा। ये सोचने के लिए तैयार नहीं हैं और जरूरत है यही सोचने के लिए कि भाई ये जो मेरे को मौका मिला है, अभी भी मेरे अंदर ये स्वांस आ रहा है और जा रहा है यही भगवान की कृपा है। दौलत भगवान की कृपा नहीं है। दौलत भगवान की कृपा नहीं है। शोहरत भगवान की कृपा नहीं है।
क्या है कृपा -- ये स्वांस जो तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है ये कृपा है। इसकी कोई गारंटी नहीं है, कब तक आयेगा, कब तक जायेगा। कोई गारंटी नहीं है। तुम्हारे पैर पर ये नहीं लिखा है कि एक्सपायरी डेट क्या है। तारीख, कब तुमको जाना है ये किसी को नहीं मालूम। कब आये थे ये किसी को नहीं मालूम। कब जाओगे ये किसी को नहीं मालूम। हां, जब तुम पैदा हुए तब तो लोगों को मालूम था पर जब तुम आए, कब आओगे ये किसी को नहीं मालूम।
तो ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है। क्या सचमुच में इस कृपा को कभी स्वीकार किया है। या अपनी तमन्नाएं लेकर चलते रहते हैं। अच्छा हो अगर ऐसा हो जाये, अच्छा हो अगर वैसा हो जाये। अच्छा हो अगर ये हो जाये, अच्छा हो वो हो जाये। यही तो सारे दिन यही लगा रहता है। अच्छा हो ये हो जाये, अच्छा हो वो हो जाये। मां-बाप हैं बच्चे को देखते हैं, ये पढ़ता क्यों नहीं है ? अच्छा हो कि ये पढ़े-लिखे बड़ा हो जाये, ये करे, वो करे। ये नहीं है कि ये जिंदा है। ये मेरा सुपुत्र है जिंदा है कितनी अच्छी बात है। ना, ये ऐसा होना चाहिए, ये ऐसा होना चाहिए, मेरे साथ ये हो जाये, मेरा प्रोमोशन हो जाये, मेरा ये हो जाये, मेरा वो हो जाये। इसी पर सभी लोग लगे रहते हैं।
परंतु अपने जीवन के अंदर उन सब चीजों से हट के देखो। जितना तुमको समय मिला है, जितना भी समय मिला है, इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ। इसीलिए संत-महात्माओं ने कहा है कि इन सारी चीजों में मत खोये रखो अपने आपको। ये बार-बार नहीं मिलेगा। ये मिला है सो मिला है। बहुत बड़ी बात हो गयी। अब जब आखिरी समय आने लगता है, तब लोगों को डर लगने लगता है, तब, तब इस बारे में सोचने की कोशिश करते हैं। ये बात अंत समय में सोचने की नहीं है। आज सोचने की है, अब सोचने की, हमेशा सोचने की है। ये मनुष्य शरीर इसके लिए नहीं मिला है। मनुष्य शरीर मिला है उस चीज का सेवन करने के लिए, उस चीज का आनंद उठाने के लिए जो तुम्हारे अंदर है। बाहर नहीं, अंदर है। उल्टा-सीधा, उल्टा-सीधा होता रहता है। लोग लगे हुए हैं। ऐसा क्यों नहीं होता है जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी। कुछ ये पछता रहे हैं कि मैंने पिछले जन्म में क्या कर्म किये होंगे। अरे, पिछले जन्म की बात छोड़ो, इस जन्म में तुमने क्या कर्म किये हैं। ये कोई सत्कर्म है, कहां से!
तब ये जो महामारी है इससे बचने के लिए, इससे बचने के लिए थोड़ी-सी चीज करनी है। मास्क पहनो, आइसोलेशन -- लोगों के बीच में मत जाओ। मास्क भी कैसा पहनना है, मास्क ऐसा पहनो -- अब कई लोग हैं जो कंबल लगा लेते हैं कंबल से नहीं होगा। मास्क चाहिए ऐसा जो उस वायरस को तुम्हारे तक न आने दे। कपड़े का मास्क उससे नहीं चलेगा। उसके लिए KN-95 मास्क चाहिए। और हाथ धोइये। पर सबसे बड़ी बात डरो मत। आनंद में रहो। जो है, धीरज रखो। ये भी एक दिन जायेगा। ये हमेशा के लिए नहीं है। ये भी एक दिन जायेगा।
बात इतनी है कि एक दिन तुमको भी जाना है। कोई चीज यहां स्थायी नहीं है। न पहाड़, बड़ी-बड़ी मूर्तियां, बड़ी-बड़ी इमारतें जो मनुष्य बनाता है। ये भी हमेशा नहीं रहेंगी। सबने जाना है। इस पृथ्वी ने भी जाना है, सूरज ने भी जाना है, चंद्रमा ने भी जाना है। सब चीजों ने, जो बनी हैं वो एक दिन उसका अंत होना अनिवार्य है। परंतु जबतक तुम जीवित हो, जबतक ये स्वांस तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है। डर से नहीं, हिम्मत से ये समय गुजारो। इसमें हिम्मत की जरूरत है। नहीं तो सारी तरफ से ऐसा लग रहा है कि अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। बात ये गवर्नमेंट की नहीं है, बात ये पुलिस की नहीं है। बात ये मिलिट्री की नहीं है। बात ये इन कानूनों की नहीं है। वो जो एक कानून है -- प्रकृति का कानून है, बात सिर्फ उसकी है। और अपने जीवन के अंदर जो कुछ भी, जो कुछ भी है सबसे बड़ी बात कि तुम्हारे अंदर जबतक ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ। आनंद लो, जो तुम्हारे अंदर का आनंद है, बाहर का आनंद नहीं। अंदर का आनंद है और हर दिन किसी न किसी तरीके से हर दिन को सफल बनाओ।
मैं यही आशा करता हूं कि आप हिम्मत रखेंगे और जैसे भी हो सके ये समय, ये गुजरे, धीरज रखो, ठीक है।
तो सभी लोगों को मेरा नमस्कार।
प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
आज जिस स्थिति में काफी सारे लोग हैं, सचमुच में हमदर्दी की बात है कि ऐसा हो रहा है जगह-जगह कि जो शांति है वो मनुष्य उस तक पहुंच नहीं पा रहा है। तो उसके बारे में ये जो कोविड केस है, इसके बारे में मैं काफी कुछ कहना चाहता हूं। क्योंकि कई बार इस संसार में रहते हुए एक हालत बन जाती है मनुष्य की, और हालत कुछ ऐसी है कि अंधेरे में रहते-रहते, रहते-रहते, रहते। अंधेरे में रहते, रहते, रहते कुछ ऐसा हो जाता है इतनी आदत पड़ जाती है अंधेरे की कि जब रोशनी आती है तो मनुष्य उस रोशनी की तरफ देख नहीं पाता है। उसको अपना चेहरा या अपनी आंखें कहीं दूसरी तरफ करनी पड़ती हैं। तो कई बार मनुष्य के साथ यही हाल हो जाता है कि अंधेरे में रहते-रहते, इस संसार के अंदर रहते-रहते सच क्या है और सच क्या नहीं है। जो असत्य है, सत्य है इसमें वो अंतर देख नहीं पाता है, क्योंकि एक तरफ देखा जाये तो बहुत सारे कानून हैं। तो देश के कानून हैं, शहर के कानून हैं, पुलिस के कानून हैं, मिलिट्री के कानून हैं। कानून ही कानून हैं। और इन कानूनों में, कानूनों में रहते-रहते-रहते हमको लगता है कि यही कानून है।
परंतु एक और कानून है और वो प्रकृति का कानून है। ये कानून जो कुछ भी मनुष्य बनाता है इसको वो बदल भी सकता है और बदलने की सभी कोशिश करते ही हैं। जब कोई कानून तोड़ता है तो वो “अजी, माफ कर दो, अब अगली बार नहीं होगा।” तो जो प्रकृति का कानून है उसके साथ ये सब नहीं चलता है। उस प्रकृति के कानून में सबको बंधे रहना है, चाहे वो कोई भी हो, चाहे वो अमीर हो, चाहे वो गरीब हो। क्योंकि जो आजकल के कानून हैं वो अमीर लोगों के लिए कम हैं गरीब लोगों के लिए ज्यादा हैं। अब गरीब बेचारा क्या करे उसको तो रहना है जैसा रहना है। अब उसको बचाने के लिए भी कौन आयेगा। तो बड़े-बड़े वकील किये जाते हैं जो अमीर लोग हैं वो करते हैं वो बहस करते हैं। सत्य को झूठ बताते हैं झूठ को सत्य बताते हैं कई बार और लोग निकल जाते हैं।
परंतु मनुष्य उस प्रकृति के कानून से उसका कोई वकील नहीं है उसके लिए जो कुछ भी कानून है प्रकृति के वो सबके लिए लागू हैं। चाहे वो जीव हों, चाहे वो मनुष्य हो, चाहे वो अमीर हो, चाहे वो गरीब हो, चाहे वो अच्छा हो, चाहे वो बुरा हो। क्योंकि अच्छा-बुरा का भी जो कानून है ये मनुष्य ने ही बनाया है और अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून हैं। कोई बांये चलता है रोड पर, कोई दांये चलता है रोड पर। ये भी कानून हैं परंतु ये मनुष्यों के बनाये हुए हैं, सोशल सोसायटी के ये कानून बनाये हुए हैं।
परंतु बात फिर आती है... दो बातें हो गयीं, एक तो जो कानून है। और दूसरी बात कि अंधेरे में इतना, अंधेरे की इतनी आदत पड़ गयी है कि जब प्रकाश आने लगता है, जब लाइट आने लगती है तो आदमी देख नहीं पाता। आज जो हालत बनी हुई है सारे संसार के अंदर। एक छोटे-से कीटाणु को लेकर इतना छोटा कि उसको आंख से भी नहीं देखा जा सकता, वायरस। परंतु क्यों ? इसका एक हल है बड़ा साधारण-सा हल है -- मास्क पहनो, हाथ धोओ और आइसोलेशन में रहो। ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। और जब समय आये तो जो वैक्सीन है, वो दवाई -- वैक्सीन लें और फिर सब ठीक है। परंतु ये काम मनुष्य नहीं कर पा रहा है।
मास्क पहनना क्यों ? हमने -- जब हम छोटे थे हमने तो बहुत देखा जो जैन धर्म को मानने वाले थे वो सब मास्क पहनकर चलते थे तो ये कोई नयी चीज नहीं है। और मास्क पहना तो उससे जो फायदा होगा वो यह है कि वायरस से बच सकते हैं। हाथ धोयें ताकि आंख से, नाक से, कुछ खुजाने से वो वायरस तुम पर नहीं आये। परंतु मास्क नहीं पहनते हैं लोग। क्यों नहीं पहनते हैं ? अगर जो डॉक्टर सर्जरी कर रहा है अगर वो कहने लगे कि मेरे को मास्क नहीं पहनना है, मैं मास्क नहीं पहनूंगा। तो कहेंगे “नहीं, नहीं, नहीं जी डॉक्टर साहब आप जरूर मास्क पहनियेगा।” तो डॉक्टर के लिए तो अनिवार्य है मास्क पहनना, परंतु जो मनुष्य है उसके लिए कठिन हो जाता है। क्यों?
आइसोलेशन की बात आती है लोग चाहते हैं कि सबकुछ वैसा हो जैसे हो रहा था। तो जैसे हो रहा था, उसी रास्ते से तो ये वायरस आयी। अरे, कुछ तो फर्क होना चाहिए, कुछ तो फर्क पड़ना चाहिए। और सबसे बड़ा फर्क ये पड़ना चाहिए कि मनुष्य अपने आपको समझे। वो औरों के साथ रहना स्वीकार करने में उसको कोई दिक्कत नहीं है। औरों के साथ रहने में उसको कोई दिक्कत नहीं है, परंतु अपने साथ रहने में मनुष्य को दिक्कत है। अब आप बताइये ये सही बात है या गलत बात है! औरों के साथ रहना उसको स्वीकार है। औरों के साथ ये करना, वो करना, पार्टी में जाना, ये करना, वो करना क्योंकि सबसे बड़ी चीज मनुष्य के लिए अब क्या हो गयी है और मैं एक देश की बात नहीं कर रहा हूं मैं सब जगह की बात कर रहा हूं। बोर्डम, बोर होना। करने के लिए कुछ नहीं है।
मैं पढ़ता हूं कि लोग लिखते हैं कि “बहुत बोर्डम हो गयी है, अब हम नहीं रह सकते इस तरीके से।” क्योंकि अपने साथ रहने की जो विधि है वो मनुष्य भूल गया है। वो ये भूल गया है कि वो चीजों का अनुभव कर सकता है जो प्रकृति की सुंदरता जो बनाने वाले ने सुंदरता बनायी है इसकी वो, इसका सेवन कर सकता है। परंतु नहीं, क्यों ? क्या बंदर बिठा दिया सबके पीठ के पीछे -- सोशल मीडिया। अब जहां जाओ, जहां जाओ, लोग अपना फोन लिये बैठे हैं टक-टक, टक-टक, टक घंटो-घंटो टक-टक, टक-टक, टक-टक, टक-टक, टक-टक, क्यों ? बोर्डम नहीं चाहिए। बोर हो जायेंगे, बोर्डम नहीं चाहिए। ये बोर्डम आयी कहां से, भाई एक समय था कि लोगों के पास फोन नहीं थे लोग भजन-अभ्यास करते थे, गुणगान करते थे, सोचते थे, विचारते थे। प्रकृति को देखते थे और उसका आनंद लेते थे। वो भी मनुष्य थे, वो भी जीते थे। खाना वो भी खाते थे। और हम भी मनुष्य हैं, खाना हम भी खाते हैं। प्रकृति वही है। हो सकता है कि नदी दूसरे रास्ते से चलती हो पर नदी तो नदी है। समुद्र समुद्र है। हमने नाम रख दिये हैं। अलग-अलग नाम। हो सकता है उस समय वो नाम नहीं हों। परंतु समुद्र तो समुद्र था। पहाड़ पहाड़ थे। किसी ने तो देखा वो पहाड़ है, कितना सुंदर है उसमें से बर्फ है, ये सबकुछ चीजें, प्रकृति को देखना, उसके बारे में सोचना, अपनी जिंदगी के बारे में सोचना कि मैं कौन हूं, कहां से आया, कहां जाऊंगा!
यही जो हम सुनते हैं, पढ़ते हैं। ये बात तो आपने मेरे मुंह से बहुत बार सुनी होगी --
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
तो किसी ने तो अपने अंदर झांक के देखा होगा, ये कहने से पहले। ये बात अगर आज दुनिया को बोरिंग लगती है तो कुछ गड़बड़ है। क्योंकि ये बोरिंग बात नहीं है कि जो -- विधि हरि हर -- ब्रह्मा विष्णु और महेश भी जिसका ध्यान करते हैं।
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
तो क्या इसकी जरूरत है। जब वो बैठा है, जब वो अंदर है और वही एक सहारा है क्योंकि क्या होगा जिसके लिए तुम सारा दिन दौड़ते हो, जिस माया के लिए सारे दिन तुम दौड़ते रहते हो, अंत समय में ये माया क्या करेगी -- बॉय-बॉय, जाओ। एक ही है जो था, जो है, जो रहेगा। अगर उसको नहीं पहचानने की कोशिश की तो फिर फायदा क्या हुआ। ये आने का, जाने का फायदा क्या हुआ। व्यस्त रहना, ये तो चींटी भी जानती है। कभी चींटी को देखा है व्यस्त रहती है। मधुमक्खी भी जानती है, व्यस्त रहती है। कभी यहां जाती है, कभी वहां जाती है। उस फूल के पास जाती है, उस फूल के पास जाती है। उसमें देखती है कि शहद है या नहीं है। ये तो सबको मालूम है। फिर मनुष्य का जो शरीर है ये क्यों धारण किया ? क्यों ये है! इससे क्या मनुष्य जान सकता है ? तो बात है कि --
भूले मन समझ के लाद लदनियां।
थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टूट जाये तेरी गरदनियां।।
गरदन टूट रही है, सबकी, सबकी। ये महामारी जो है ये सबको, सबको परेशान करके बैठी है। हमको भी परेशान करने लगी। कैसे ? अब कहां जायेंगे, क्या होगा, कैसे होगा, ये होगा, वो होगा। हमको भी लगा कि “भाई, कुछ न कुछ तो ये बीमारी है अब ये कहीं जाने नहीं देगी।” मैंने कहा, नहीं, अपने आपसे हमने कहा -- धीरज रखो, धीरज रखो। तो मौका मिला। यूरोप में भी थे पिछले साल। इस साल गये, अभी जो मैं वापस आया हूं तो गया था मैं ब्राज़ील गया, ब्राज़ील के बाद केपटाउन गया, केपटाउन के बाद बार्सिलोना गया, बार्सिलोना के बाद वापस आया। तो मौका मिला। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, मौका मिला। जो बदलना है वो मेरी रफ्तार से नहीं बदलेगा वो अपनी रफ्तार से बदलेगा। जो धुन बज रही है, जो धुन बज रही है अगर मैं गाना चाहता हूं अपना साज़ बजाना चाहता हूं तो मेरे को भी उसी धुन में बजाना पड़ेगा। अगर मैं अलग से बजाने लगूं तो सुनने में वो अच्छा नहीं लगेगा और यही बात है।
तो लोग हैं, कोई किसी को, अब धीरज कौन रखेगा ? ये धीरज, धीरज रखने की तो बात ही नहीं है। उस स्थान पर आओ ये करो, वो करो, सबकुछ, सबकुछ हो रहा है। स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल परंतु जो आनंद लेने का स्केजुअल है, जो हृदय भरने का स्केजुअल है इसके बारे में क्या करोगे। तो मैं क्या कह रहा हूं कि मनुष्य को अंधेरे की इतनी आदत पड़ सकती है कि जब रोशनी आये तो वो उसको देख ना पाये। अपने से ये पूछना है कि कहीं तुम्हारे साथ यही तो नहीं हो रहा है। डर नहीं। सबको डर लगता है अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। धीरज रखो, धीरज रखो। जो उसका कानून है, जो प्रकृति का कानून है इसको कोई नहीं तोड़ सकता। इसके लिए कोई वकील नहीं है। आज मनुष्य को क्या हो गया है, क्या कर दिया है मनुष्य ने। अंधेरे में रहते-रहते, अंधेरे में रहते-रहते भगवान को इंसान बना दिया। भगवान को इसकी जरूरत है, भगवान को उसकी जरूरत है, उसको ये चाहिए, उसको ये चाहिए, तुम ये करो, तुम वो करो, ऐसा करो, वैसा करो, वहां जाओ, ये करो। भगवान को इंसान बना दिया। और हां जी, इंसान को भगवान बना दिया। अंधेरे में ये होता है। उजाले में क्या होता है कि --
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
उजाले में ये होता है। अंधेरे में क्या होता है ? पता नहीं जी! भगवान कैसा है, उसको इंसान बना दो। जो, जो सब जगह रहता है। जो सब जगह रहता है, जो सर्वव्यापी है, उसके लिए घर बना दिया। वो कहां बैठेगा, वो तो सब जगह है। ऊपर भी है, नीचे भी है। पानी में भी है, वायु में भी है। पृथ्वी में भी है, पेड़ में भी है। पौधे में भी है। मनुष्य में भी है, जानवर में भी है। सब जगह है। उसके लिए क्या बना दिया, उसके लिए घर बना दिया। जिसको घर की जरूरत ही नहीं है। तो भगवान को बना दिया है इंसान, इंसान को बना दिया है भगवान। बड़े-बड़े नाम दे दिये। परंतु जिस दिन वो कानून आयेगा वो ऐसा उठायेगा कैसे कि --
भूले मन समझ के लाद लदनियां।
थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टूट जाये तेरी गरदनियां।।
और इसकी आखिरी पंक्ति क्या है --
कहत कबीर सुनो भाई साधो, काल के हाथ कमनिया।।
और वो जिसको पकड़ लेगा, पकड़ लेगा। रख दिया, रख दिया अब कोई भी हो। बड़े-बड़े हैं, लेटे हुए हैं। भक्त आ रहे हैं हाथ जोड़ रहे हैं। कोई आशीर्वाद देने के लिए नहीं है क्योंकि जो आशीर्वाद दे रहा था वो तो चले गया, पर अंधेरे में ये होता है। जब आंख बंद की हुई है जिसको कहते हैं अंधविश्वास -- उसमें यही होता है।
और अब तो कितने लोग डरे हुए हैं। कुछ भी कह दो लोगों को। यहां तक कह दो कि तुम एक पत्ते पर किसी का नाम लिख दो तो तुम ठीक हो जाओगे, लोग करने के लिए तैयार हैं। ये सोचने के लिए तैयार नहीं हैं कि इससे मेरा क्या होगा। ये सोचने के लिए तैयार नहीं हैं और जरूरत है यही सोचने के लिए कि भाई ये जो मेरे को मौका मिला है, अभी भी मेरे अंदर ये स्वांस आ रहा है और जा रहा है यही भगवान की कृपा है। दौलत भगवान की कृपा नहीं है। दौलत भगवान की कृपा नहीं है। शोहरत भगवान की कृपा नहीं है।
क्या है कृपा -- ये स्वांस जो तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है ये कृपा है। इसकी कोई गारंटी नहीं है, कब तक आयेगा, कब तक जायेगा। कोई गारंटी नहीं है। तुम्हारे पैर पर ये नहीं लिखा है कि एक्सपायरी डेट क्या है। तारीख, कब तुमको जाना है ये किसी को नहीं मालूम। कब आये थे ये किसी को नहीं मालूम। कब जाओगे ये किसी को नहीं मालूम। हां, जब तुम पैदा हुए तब तो लोगों को मालूम था पर जब तुम आए, कब आओगे ये किसी को नहीं मालूम।
तो ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है। क्या सचमुच में इस कृपा को कभी स्वीकार किया है। या अपनी तमन्नाएं लेकर चलते रहते हैं। अच्छा हो अगर ऐसा हो जाये, अच्छा हो अगर वैसा हो जाये। अच्छा हो अगर ये हो जाये, अच्छा हो वो हो जाये। यही तो सारे दिन यही लगा रहता है। अच्छा हो ये हो जाये, अच्छा हो वो हो जाये। मां-बाप हैं बच्चे को देखते हैं, ये पढ़ता क्यों नहीं है ? अच्छा हो कि ये पढ़े-लिखे बड़ा हो जाये, ये करे, वो करे। ये नहीं है कि ये जिंदा है। ये मेरा सुपुत्र है जिंदा है कितनी अच्छी बात है। ना, ये ऐसा होना चाहिए, ये ऐसा होना चाहिए, मेरे साथ ये हो जाये, मेरा प्रोमोशन हो जाये, मेरा ये हो जाये, मेरा वो हो जाये। इसी पर सभी लोग लगे रहते हैं।
परंतु अपने जीवन के अंदर उन सब चीजों से हट के देखो। जितना तुमको समय मिला है, जितना भी समय मिला है, इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ। इसीलिए संत-महात्माओं ने कहा है कि इन सारी चीजों में मत खोये रखो अपने आपको। ये बार-बार नहीं मिलेगा। ये मिला है सो मिला है। बहुत बड़ी बात हो गयी। अब जब आखिरी समय आने लगता है, तब लोगों को डर लगने लगता है, तब, तब इस बारे में सोचने की कोशिश करते हैं। ये बात अंत समय में सोचने की नहीं है। आज सोचने की है, अब सोचने की, हमेशा सोचने की है। ये मनुष्य शरीर इसके लिए नहीं मिला है। मनुष्य शरीर मिला है उस चीज का सेवन करने के लिए, उस चीज का आनंद उठाने के लिए जो तुम्हारे अंदर है। बाहर नहीं, अंदर है। उल्टा-सीधा, उल्टा-सीधा होता रहता है। लोग लगे हुए हैं। ऐसा क्यों नहीं होता है जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी। कुछ ये पछता रहे हैं कि मैंने पिछले जन्म में क्या कर्म किये होंगे। अरे, पिछले जन्म की बात छोड़ो, इस जन्म में तुमने क्या कर्म किये हैं। ये कोई सत्कर्म है, कहां से!
तब ये जो महामारी है इससे बचने के लिए, इससे बचने के लिए थोड़ी-सी चीज करनी है। मास्क पहनो, आइसोलेशन -- लोगों के बीच में मत जाओ। मास्क भी कैसा पहनना है, मास्क ऐसा पहनो -- अब कई लोग हैं जो कंबल लगा लेते हैं कंबल से नहीं होगा। मास्क चाहिए ऐसा जो उस वायरस को तुम्हारे तक न आने दे। कपड़े का मास्क उससे नहीं चलेगा। उसके लिए KN-95 मास्क चाहिए। और हाथ धोइये। पर सबसे बड़ी बात डरो मत। आनंद में रहो। जो है, धीरज रखो। ये भी एक दिन जायेगा। ये हमेशा के लिए नहीं है। ये भी एक दिन जायेगा।
बात इतनी है कि एक दिन तुमको भी जाना है। कोई चीज यहां स्थायी नहीं है। न पहाड़, बड़ी-बड़ी मूर्तियां, बड़ी-बड़ी इमारतें जो मनुष्य बनाता है। ये भी हमेशा नहीं रहेंगी। सबने जाना है। इस पृथ्वी ने भी जाना है, सूरज ने भी जाना है, चंद्रमा ने भी जाना है। सब चीजों ने, जो बनी हैं वो एक दिन उसका अंत होना अनिवार्य है। परंतु जबतक तुम जीवित हो, जबतक ये स्वांस तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है। डर से नहीं, हिम्मत से ये समय गुजारो। इसमें हिम्मत की जरूरत है। नहीं तो सारी तरफ से ऐसा लग रहा है कि अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। बात ये गवर्नमेंट की नहीं है, बात ये पुलिस की नहीं है। बात ये मिलिट्री की नहीं है। बात ये इन कानूनों की नहीं है। वो जो एक कानून है -- प्रकृति का कानून है, बात सिर्फ उसकी है। और अपने जीवन के अंदर जो कुछ भी, जो कुछ भी है सबसे बड़ी बात कि तुम्हारे अंदर जबतक ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ। आनंद लो, जो तुम्हारे अंदर का आनंद है, बाहर का आनंद नहीं। अंदर का आनंद है और हर दिन किसी न किसी तरीके से हर दिन को सफल बनाओ।
मैं यही आशा करता हूं कि आप हिम्मत रखेंगे और जैसे भी हो सके ये समय, ये गुजरे, धीरज रखो, ठीक है।
तो सभी लोगों को मेरा नमस्कार।