प्रेम रावत:
हम लोगों की एक आदत है और वो आदत भेड़ में भी है। एक भेड़ इधर गई, तो सबके सब उधर ही जायेंगे। तो जब मनुष्य होकर के भी भेड़ जैसा ही रहना है, तो मनुष्य होने से क्या फायदा? मनुष्य होने से क्या फायदा? भेड़ को तो खेती करनी नहीं पड़ती, बाजार जाना नहीं पड़ता। कोई उसको खिलाता है, कोई उसके लिए खेती करता है। कोई चारा डालता है तो भेड़ तो मनुष्य से अच्छी हुई। क्योंकि मनुष्य हो करके भी अगर व्यवहार वही है जो भेड़ का है तो कम से कम भेड़ को तो हमेशा खाना मिलता है और तुम उसके लिए पता नहीं कहां-कहां भागते फिरते हो। फिर फायदा क्या हुआ?
आप मेरी बात समझो, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूं। क्योंकि बात गम्भीर है। है मजाकिया पर है गम्भीर। और गम्भीर इसलिए है क्योंकि आप मनुष्य हैं। मैं मनुष्य हूं। और मैं मनुष्य के नाते आपसे कह रहा हूं। मैं भी मनुष्य हूं, आप भी मनुष्य हो। मैं मनुष्य के नाते, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से ये कह रहा है कि — नहीं, इस जीवन का लक्ष्य ये नहीं है। क्योंकि आप जीवित हैं। आप कुछ और पा सकते हैं। कुछ और कर सकते हैं। आप अपने जीवन में शांति का अनुभव कर सकते हैं।
आप अपने जीवन को सफल कर सकते हैं। किसी लिस्ट से नहीं, अपने हृदय के अंदर उस सक्सेस को महसूस करके कि — हां, सचमुच में, सचमुच में मैं कितना धन्य हूं कि मैं जीवित हूं।
सब दबे हुए हैं अपने बोझ से। हम ये कैसे करें, हम ये कैसे करें, हमारे पर ये बोझ है, हमारे पर ये बोझ है, हमारे पर ये बोझ है। मैं आप पर बोझ नहीं डालना चाहता। मैं आपका बोझ हल्का करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि आप अपने कंधों से इस बोझ को नीचे रखें। इसका यह मतलब नहीं है कि आप अपनी जिम्मेवारी न निभायें। पर ये जिम्मेवारी बोझ क्यों बन गई? अब जिम्मेवारी है, ये बोझ क्यों बन गई? क्योंकि एक चीज है आपके अंदर जो कुछ और पाना चाहती है। और आपका जो दिमाग है इसमें टेप लगी हुई है — नहीं, तुमको कुछ और पाना है।
अगर वो होने लगे आपके जीवन में जो आपका हृदय चाहता है तो ये जिम्मवारियां बोझ नहीं रहेंगी। ये जिम्मवारियां बोझ नहीं रहेंगी। इनको आप निभा सकेंगे। इनको उतना ही टाइम देंगे, जितना देना है। उससे ज्यादा नहीं। क्योंकि अभी तो हर एक चीज जो आपको करनी है पहाड़ जैसी लगती है। नहीं? वो भी दिन भी होते हैं कि ऐसे लगता है अब ये भी करना है, अब वो भी करना है, अब वो भी करना है, अब वो भी...।आह! बताऊं क्यों? क्योंकि तुम नहीं करना चाहते। जो तुम नहीं करना चाहते, वो पहाड़ जैसी लगती है, जो करना चाहते हो, वो पहाड़ जैसी नहीं लगती।
ये जग अंधा मैं केहि समझाऊं, सभी भुलाना पेट का धन्धा।
सबका…सबका…सबके साथ। परंतु यहां जो मैं चीज कह रहा हूं वो अलग है। क्योंकि ये एक प्लेटफार्म, ये स्टेज कोई पॉलिटिकल स्टेज नहीं है। कोई धर्म की स्टेज नहीं है। ये मानव के नाते एक स्टेज है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से मानवता के नाते से कह रहा है कि तुम जिस जीवन को जी रहे हो, यह असली में तुम्हारा जीवन नहीं है। एक और जीवन है जिसके अंदर तुम हर एक दिन खुशी को महसूस करो।
इस जीवन का लक्ष्य भेड़-चाल में फंसे रहना नहीं है। क्योंकि आप मनुष्य हैं, आप अपने जीवन में शांति का अनुभव कर सकते हैं।
प्रेम रावत :
चार चीजें बहुत जरूरी हैं इस जीवन के अंदर और इन चार चीजों में तो मैं किताब भी लिखने जा रहा हूं। और ये जो चार चीजें हैं — एक कि तुम अपने आपको जानो। जब तक तुम अपने आपको नहीं जानोगे, तुमको नहीं पता तुम्हारी शक्तियां क्या हैं और तुम्हारी कमजोरी क्या हैं? तुमको यह नहीं मालूम रहेगा कि तुम यहां आये क्यों हो? तुमको यह नहीं मालूम पड़ेगा कि मनुष्य होता क्या है, जब तक तुम अपने आपको नहीं जानोगे।
और दूसरी चीज कि अपने जीवन में — अपने जीवन में सदैव यह हृदय आभार से भरा रहे। और भरेगा तभी, जब आप हर दिन के लिए धन्यवाद अदा करने योग्य होंगे। ये नहीं है कि सुबेरे उठ करके — आहह! नहीं, उठ करके — मैं जीवित हूं। मैं जीवित हूं। असली सफलता तो वह है। असली चीज तो वह है, जिसका तुम अनुभव कर सको।
तो आभार कैसे होगा? जब तक सचमुच में दिल भरेगा नहीं और जब तक जो असलियत है उसको हम स्वीकार नहीं करेंगे अपने जीवन के अंदर ।
और तीसरी चीज कि तुम्हारे बारे में लोग क्या सोचते हैं, इसको तुम छोड़ दो। मैं जानता हूं... हैंऽऽऽ ये कैसे होगा । क्या मतलब क्योंकि जो कुछ भी तुम बैठे-बैठे यही तुम्हारे दिमाग में चलता रहेगा कि — “वो क्या सोच रहा है मेरे बारे में, वो क्या सोच रहा है मेरे बारे में, वो क्या सोच रहा है मेरे बारे में, वो क्या सोच रहा है मेरे बारे में।” लोगों के जीवन तबाह हो जाते हैं इस बात को लेकर। तबाह! ये होना चाहिए, वो होना चाहिए ताकि मेरी नाक न कटे। नहीं कटेगी। अपने आप नहीं कटेगी, चक्कू से कटेगी। क्योंकि ऐसी प्रथा बना रखी है। ऐसी प्रथा बना रखी है। और ये कभी टूटेगी नहीं, लगी रहती है। साल के उसके बाद, उसके बाद, उसके बाद, उसके बाद, उसके बाद, उसके बाद इसी में, वो क्या सोचेंगे, वो क्या सोचेंगे, वो क्या सोचेंगे, वो क्या सोचेंगे। क्यों? उनके पास और कुछ सोचने के लिए नहीं है? है! उनके पास बहुत है सोचने के लिए। वो तुम्हारे बारे में — और वो तुम्हारे बारे में नहीं। अगर वो इतने ही खुदगर्ज हैं तो वो अपने बारे में सोच रहे होंगे।
कितना जरूरी है कि हम इन चीजों में न पड़ जायें और हमेशा हमारे जीवन के अंदर आशा बनी रहनी चाहिए। जब तक ये स्वांस चल रहा है, मनुष्य को निराश होने की जरूरत नहीं है। चाहे कुछ भी हो जाये, निराश नहीं होना है। निराश होने की कोई जरूरत नहीं है। इसे कहते हैं असली ताकत। ये है असली ताकत।
Text on screen:
चार जरूरी बातें
अपने आपको जानो।
हृदय आभार से भरा रहे।
लोग क्या सोचेंगे इसकी परवाह न करें।
जीवन के अंदर आशा बनी रहे।
टॉम प्राइस : (होस्ट)
और यह है — मेरा आपसे सवाल। और फिर हम आपके सवाल पर जाएंगे; आप बिलकुल भी चिंता न कीजिये। मेरे लिए कमाल का मौका है, कमाल का प्रेम जी से सवाल पूछने का।
तोहफा खोलने वाला उदाहरण कमाल का है। पर एक बार अगर आपने ये तोहफा खोल लिया, “आप इस तोहफे को दोबारा बंद होने से कैसे रोकेंगे, कैसे रोकेंगे!”
प्रेम रावत जी :
अब यह अहम सवाल है। बस इतने समय में क्या आपने सोचा कि तोहफा खुद नहीं खुला होगा, आपने इसे खोला है। तो बस आप ही हैं जो इसे बंद करके वापस रख सकते हैं। हां बिल्कुल, आप ऐसा कभी भी कर सकते हैं। तो एक तोहफा, तो तोहफा ही है जब आप स्वीकार नहीं करते, यह तोहफा नहीं है।
एक कहानी है मतलब कि इस उदाहरण से पहले भी कुछ आता है पर मैं अपनी बात बताता हूं एक समय भगवान बुद्ध अपने एक शिष्य के साथ जा रहे थे। उस शहर में सब बुद्ध को बुरा कह रहे थे। कहते हैं, "आप अच्छे नहीं हैं, आप ये नहीं करते, आप वो नहीं करते और ये सब।"
तो उनके शिष्य ने कहा, " बुद्ध, यह आपको परेशान नहीं करता इतने सारे लोग आपके बारे में बुरा बोल रहे हैं, बोलते जा रहे हैं!"
तो जब बुद्ध वापिस आये उन्होंने एक कटोरा लिया और उनका शिष्य वहीं बैठा था। उन्होनें एक कटोरा लिया और सरका दिया और फिर पूछा "यह किसका है ?" और उनके शिष्य ने कहा, "यह आपका है।" फिर बुद्ध ने थोड़ा और सरकाया और पूछा "यह अब किसका है ?"
शिष्य ने कहा "यह अब भी आपका है।"
वह ऐसा करते रहे और पूछते गए कि "यह किसका है; यह किसका है!" और शिष्य कहता रहा "यह आपका है; यह आपका है।" फिर उन्होंने कटोरा लिया और शिष्य की गोद में रख दिया और फिर पूछा कि "अब किसका है ?"
उसने कहा "यह अब भी आपका है।"
उन्होंने कहा "बिल्कुल सही।" अगर मैं बुराई को नहीं मानता तो वो मेरी नहीं है और यह वही बात है अगर हम इस तोहफे को नहीं अपनाते, यह हमारा नहीं है। यह बस पड़ा रहेगा ऐसे ही। हम इस दुनिया में आते हैं और एक दिन हमें यहां से जाना है और फिर हम सोचते हैं और यह बहुत ज्यादा लोगों के साथ होता रहता है। बस आखिरी क्षण में वह कहते हैं कि "मैंने अब तक क्या किया ?"
फिर भी सब सुलझाने का समय होता ही नहीं है जैसा कि आप करना चाहते थे कि वो हो। लेकिन अभी वह समय है अभी आप जीवित हैं और आप वो सब कर सकते हैं या जीवन बर्बाद कर सकते हैं। और बात यह है जीवन वापस लौट कर आपसे यह नहीं कहेगा कि आप बर्बाद कर रहे हैं। ऐसा होता तो अच्छा होता। जानते हैं ना, पर ऐसा नहीं होता। और इसकी एक और खूबसूरती है कि जब भी आप तोहफे को स्वीकारने का सोचते हैं, यह उसी समय आपका बन जाता है। तो ज्यादा देर नहीं हुई है फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर आप खुद से कहते हैं कि "अच्छा अब तो मैं 84 का हूं मेरे लिए बहुत देर हो चुकी है।"
जी नहीं! देर नहीं हुई है और ये आप कहते हैं कि "अच्छा, मैं तो बहुत छोटा हूं।"
नहीं, आप छोटे नहीं हैं,आप बड़े नहीं है बस जिस दिन आप स्वीकारते हैं वह आपका है।
प्रेम रावत:
अगर आप चाहते हैं कि इस संसार के अंदर शांति स्थापित हो तो पहले अपने छोटे-से संसार में शांति को स्थापित करो। संसार में अगर अशांति है तो उसका कारण कोई और नहीं — कौन है ? हम सब हैं! हम सब हैं! सब के सब! सारे हिन्दुस्तानी, सारे अमेरिकन, सारे कनेडियन, सारे ऑस्ट्रेलियन — सात अरब लोग इस संसार में हैं। सब के सब की जिम्मेवारी है। सबकी! ये नहीं है कि ‘‘आप खा लो या हम चुन लेते हैं! एक आदमी को चुन लेते हैं इनमें से — जो हम सबके लिए खाकर आ जाएगा। काहे के लिए हम अपना टाइम बर्बाद करें ?’’ जब भूख लगती है — तब ये सब नहीं चलता।
लोग हैं, शांति के लिए क्या करेंगे ? "अच्छा-अच्छा! दीया जला देते हैं।"
भूख लगी है तुम्हारे को, घर जाओगे, बीवी से पूछोगे, "खाना तैयार है ?" "आप दीया जला दीजिए!"
आपका अपने परिवार में क्या व्यवहार है ? आप दो मिनट अपने बच्चों के साथ बैठते हैं, उनका लेक्चर सुनते हैं या अपना ही लेक्चर देते रहते हैं?
बहुत सीरियस बात है ये!
"बेटा! बोल! आज तेरी बारी। किस चीज से तू खुश है ? किस चीज से तू खुश नहीं है ? बोल!" क्या कहना है — "खुश हो ?"
नहीं, नहीं...। कान पहले से ही पके हुए हैं। कान पहले से ही पके हुए हैं। अरे, छोटी-छोटी बातें हैं ये। समझो! क्या कर रहे हो तुम अपने जीवन में ?
सोच कोई नहीं रहा। बिना शांति के यह संसार तबाह हो जायेगा। इस पर एक्शन लो! समझो इस बात को कि तुम इसके भागीदार हो। और समय है, ये समय है कि अगर हम निश्चय करें कि शांति भी मेरे अंदर है और मैं इस अशांति का भागीदारी हूं और यह मेरे पर निर्भर है। अगर मैं कुछ करूं तो सचमुच में शांति संभव है।
Text on screen :
अगर आप चाहते हैं कि संसार के अंदर शांति स्थापित हो तो
पहले अपने छोटे-से संसार में
शांति को स्थापित करो।
Text on screen : हर उम्र में सीखने और सिखाने की रूचि को कैसे बनाए रखें ?
प्रेम रावत:
अगर हम लोग ये stance नहीं adopt करें कि "हमको कुछ मालूम है, तुमको नहीं मालूम!" क्योंकि मनुष्य हमेशा यही करता रहता है। "मेरे पास कितना है, तुम्हारे पास कितना है! मेरे पास ज्यादा होना चाहिए, तुम्हारे पास कम होना चाहिए! ये मेरा है, ये तेरा है!"
तुलसीदास जी ने यही कहा है कि "यही माया है! ये मेरा है, ये तेरा है", यही माया है। और यही माया है कि "मैं ये जानता हूं, तू ये नहीं जानता है।"
तो अब बात ये हो गई कि जहां टेक्नोलोजी की बात है तो वो छोटे वाले जो हैं, उनको ज्यादा मालूम है तो वो कहते हैं कि "तुमको नहीं मालूम है, तुम नहीं कर सकते।" पर माहौल तो ऐसा होना चाहिए कि "मैं सीखना चाहता हूं! अगर तुम मुझे सिखा सकते हो, सिखाओ!" और अगर मैं कुछ तुम्हें सिखा सकता हूं तो मेरे से सीख लो!"
अगर ये exchange होने लगे लोगों में तो देखिए! बड़े-बड़े भी छोटों से सीख लेंगे और छोटे भी बड़ों से सीख लेंगे। फिर ये भेदभाव नहीं रहेगा, क्योंकि माली को जो मालूम है, माली को जो मालूम है, वो मालिक को नहीं मालूम! और मालिक को जो मालूम है, वो माली को नहीं मालूम! और जिस दिन मालिक, माली से सीखने लगेगा, उस दिन उसके लिए कुछ नया ज्ञान पैदा होगा। और माली, मालिक से सीख सकते हैं। और उसके लिए हो सकता है कि वो दो पैसे और बचाना शुरू कर दे! दस पैसे और बचाना शुरू कर दे! बजटिंग चालू कर दे और वो भी एक दिन मालिक बन जाए।
ये बात है — क्योंकि हमारे कल्चर में सीखने की बात ही नहीं है। "हम जानते हैं सबकुछ!" और जब छोटा बच्चा — 11 साल का, 12 साल का, जिस फोन को हम नहीं चला सक रहे हैं ठीक ढंग से, वो आकर छीनता है और कहता है, "मेरे को मालूम है, कैसे करना है — खड़- खड़-खड़, हो गया!"
हमको ये नहीं होता है कि "मैं क्या इससे सीख सकता हूं!"
"बेटा! सिखाना, तुमने क्या किया ?"
नहीं। गुस्सा आता है — "इसको मालूम है, मेरे को नहीं मालूम!"
लोग अपने पर पाबंदी लगा लेते हैं — "मेरी तो उम्र बहुत हो गई। अब मैं क्या सीखूंगा ?"
देखिए! आपका जो शरीर है, इसमें उम्र के कारण आँखें कमजोर होने लगती हैं। हो सकता है, सुनाई कम दे। हो सकता है, दाँत हिलने लगे! और चीजें हैं, उस ढंग से काम न करें, जैसे करती थीं। पर दिमाग एक ऐसी चीज है, जो काम करती रहती है। दिमाग एक ऐसी चीज है, जो काम करती रहती है! और दिमाग एक ऐसी चीज है कि जितना उसको इस्तेमाल करेंगे, उतना ही वो बढ़िया काम करेगा। जितना आप उसको इस्तेमाल करेंगे। तो अगर हमारे कल्चर में — सारे, मैं पृथ्वी की कल्चर की बात कर रहा हूं। मैं सिर्फ हिन्दुस्तान ही के कल्चर की बात नहीं कर रहा हूं। हर एक कल्चर में अगर लोग सीखने लगें और सिखाने लगें एक-दूसरे को — एक तो लोगों में कितनी रिस्पेक्ट होगी! कितनी क़दर करेंगे लोग एक-दूसरे की!
अब देखिए! मैं बहुत कुछ कर सकता हूं। क्योंकि मेरी सीखने की आदत है। अब कोई भी — आज भी कोई आदमी कुछ कर रहा है तो मैं उससे कहता हूं, "सिखाओ! मेरे को बताओ, कैसे किया ये ?"
मैं सीखना चाहता हूं अपनी जिंदगी में और मैंने बहुत बार कोशिश की। मैं हवाई जहाज भी उड़ा सकता हूं। मैं मशीनों पर भी काम करता हूं। मैंने cars भी restore की हैं! बहुत कुछ किया है। पर रोटी बनाना, बेलना — मैं इसको आसान काम नहीं समझता हूं। और जिनको मैं देखता हूं बेलते हुए — क्या ? क्या खूब बात है, तुमको आता है! और जो बेलते हैं, उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उनके लिए कि "आप हवाई जहाज उड़ा सकते हैं ?"
ये बहुत बड़ी बात है। परंतु ऐसी कोई चीज नहीं है इस दुनिया के अंदर, जो मनुष्य सीख नहीं सकता। सबमें सीखने की क्षमता है। परंतु पहले ही मनुष्य दीवाल बना लेता है कि मैं सीख नहीं सकता।
यही बात लागू होती है अपने आपको जानने में। पहले ही वो एक दीवाल बना लेता है कि "ना, ना, ना! इन चीजों से मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। इन चीजों को मैं नहीं समझ सकता हूं। ये धार्मिक चीज है।"
ये धार्मिक चीज नहीं है। अपने आपको आईने में देखना, धार्मिक नहीं है। आपने आपको जानना, धार्मिक नहीं है। भगवान कैसा है, उसकी फोटो बना के अपने दिमाग में रखना, धार्मिक जरूर हो सकता है, परंतु साक्षात् उस ब्रह्म को अपने अंदर उसको महसूस करना, धार्मिक नहीं है। इसका किसी धर्म से लेना-देना नहीं है। इसका किसी — पहले ही बनी हुई धारणाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। ये तो साक्षात् चीज है। और जबतक हम अपने कल्चर में, अपने जीवन में सीखना और सिखाना नहीं ले आएंगे, तबतक ये सारे झंझट जो हैं लोगों के बीच में, जो तनाव बना देते हैं, जो ages को separate कर रहे हैं — क्योंकि "ये तुम्हारी आयु है। तुम जवान हो, तुम बुड्ढे हो! तुम ये हो, तुम वो हो!"
ये सारे तबतक खतम नहीं होंगे। ये बढ़ते चले जाएंगे। क्योंकि जो नई-नई टेक्नोलोजी आ रही हैं, नये-नये जो छोटे बच्चे हैं, उनको इस्तेमाल कर रहे हैं। जो बुजुर्ग हैं, वो इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने पहले ही ठान लिया कि "ये हमसे नहीं होगा!"
तो ये झंझट बना रहेगा।
प्रेम रावत:
सबसे पहले तुममें शांति होनी चाहिए। और तब, जब तुममें शांति होगी, तब तुम इस संसार से शांति बनाओ! और जब तुम इस संसार से शांति बनाओगे, तब जाकर के इस संसार के अंदर शांति होगी। क्योंकि इस संसार में अशांति का कारण तुम्हीं हो। इस संसार के अंदर जो अशांति फैली हुई है, वह अधर्म के कारण फैली हुई है।
अधर्म जो मनुष्य करता है, क्योंकि उसको यही नहीं मालूम कि वो कौन है। उसको ये नहीं मालूम कि वो शेर है या बकरी ? कौन है वो ? उसको नहीं मालूम! और अधर्म होता है।
सबसे पहला धर्म क्या है ?
सबसे पहला धर्म जो मनुष्य ने बनाया, वो धर्म है — दया होनी चाहिए, उदारता होनी चाहिए। इसीलिए तो इन सब चीजों का वर्णन हर एक धार्मिक धर्म में मिलता है। चाहे वो हिन्दू हो, चाहे वो मुसलमान हो, चाहे वो सिख हो, चाहे वो ईसाई हो, चाहे वो बुद्धिष्ट हो! किसी भी धर्म का हो, सभी धर्मों में ये सारी चीजें बराबर हैं।
उदारता होनी चाहिए, दया होनी चाहिए, क्षमता होनी चाहिए, क्षमा होनी चाहिए! ये है तुम्हारा धर्म! और जब तुम क्षमा नहीं करते हो, जब तुम दया नहीं करते हो, तुम अधर्म करते हो! इस अधर्म — नरक की बात छोड़ो! नरक की बात छोड़ो! क्यों छोड़ो ? क्योंकि अधर्म के कारण मनुष्य ने नरक यहीं बना दिया है। जहां स्वर्ग होना चाहिए, वहां मनुष्य ने नरक बना दिया है।
असली धर्म को पकड़ो! और वो असली धर्म है — मानवता का धर्म! मानवता का धर्म! जिसमें दया है, उदारता है! और जब उसको पकड़ोगे, अपने आपको पहचानोगे कि तुम कौन हो।
मैं बात कर रहा हूं, तुम्हारा! जो मानव होने के नाते जो तुम्हारा धर्म है, इसको निभाना सीखो! जिस दिन तुम इसको निभाने लगोगे, तुम्हारे जीवन के अंदर भी आनंद ही आनंद होगा।