प्रेम रावत:
अब देखिए! एक छोटी-सी बात। आपकी वॉन्ट्स भी हैं, आपकी नीड्स भी हैं। क्या कभी आपने बैठ के एक दिन अपने से यह पूछा है कि मेरी वॉन्ट्स क्या हैं और मेरी नीड्स क्या हैं ? या दोनों की खिचड़ी बनी हुई है ?
साक्षात्कार:
पुरुष: यह तो एक ही सिक्के के दो पहलू हो गये।
पुरुष: ज़रूरत है . . .
पुरुष: अटेंडेंस . . .
पुरुष: हर चीज़ चाहत है।
पुरुष: पढ़ाई करनी है, जॉब करनी है, पैसे कमाने हैं, जो करना है करना है। लेकिन वॉन्ट्स में क्या हो रहा है सबकुछ करना है हमें।
महिला: अच्छी-सी, मस्त-सी लाइफ बिना शादी के।
पुरुष: चाहत जो है कभी खत्म नहीं होती इंसान की।
महिला: चाहत क्या होती है ?
पुरुष: घूमना सबसे ऊपर है।
महिला: ग्रोथ चाहिए, डेवलपमेंट चाहिए डेफ़िनिटेली मनी इज़ वैरी इम्पोर्टेन्ट
महिला: पहाड़ों में जाकर ट्रैकिंग करना।
पुरुष: चाहत तो यह है कि मैं फ़रारी में घूमूं।
महिला: मेरी! मैं बेसिकली आर्मी में जाना चाहती हूं।
महिला: ज़रूरतें हैं . . .
प्रेम रावत:
असली ज़रूरत! उन चीज़ों की बात कर रहा हूं जिनके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकेगा। मनुष्य की ज़रूरतें क्या हैं ? तीन हफ्ते अगर भोजन न मिले, आप गए!
साक्षात्कार:
पुरुष: तीन हफ्ते खाना...
महिला: बिल्कुल डैमेज़ हो जायेंगे, चल भी नहीं पायेंगे।
पुरुष: अरे! बचेंगे ही नहीं और क्या होगा।
पुरुष: थ्री टाइम्स भी डे...नहीं मिलता आइ कांट लीव विदाउट फूड।
महिला: ओह माइ गॉड! हम लोग फूडी हैं हम लोग को तो वैसे ही चाहिए।
पुरुष: खाना नहीं मिले तो कैसे ? रह नहीं पाऊंगा पहली बात तो।
महिला: मैं तो नहीं रह सकती।
महिला: खाना! खाना तो इंसान की ज़रूरत होती है।
प्रेम रावत:
अगर कोई बिना भोजन के मर गया तो उसके लिए मेडिकल टर्म है — स्टारवेशन। वो मरा स्टारवेशन से। अगर तीन-चार दिन आपको पानी न मिले, हफ्ते भर पानी न मिले, आप गए!
साक्षात्कार:
पुरुष: चाहिए पानी तो।
महिला: पानी के बिना तो नहीं सर्वाइव कर सकते।
महिला: पानी, हवा, खाना नहीं छोड़ सकते आप।
पुरुष: पानी भी नहीं और खाना भी नहीं तो, मर जायेगा वो।
पुरुष: तीन दिन तक अगर एक इंसान को पानी न मिले ना, दो घंटे में मर जाता है इंसान। तुम तीन दिन की बात कर रहे हो यार
महिला: पानी के बिना तो हम तीन घंटे भी नहीं रह सकते।
प्रेम रावत:
कोई अगर पानी के बिना मर गया तो उसके लिए भी मेडिकल टर्म है, वो मर गया डि-हाइड्रेशन से। अगर आप पाँच मिनट हवा नहीं लेंगे, स्वांस नहीं लेंगे, आप गए!
साक्षात्कार:
पुरुष: नहीं रह पाऊंगा सांस के बिना तो।
महिला: मेरे से तो एक मिनट तक सांस नहीं रोकी जाती।
महिला: एक मिनट भी नहीं हो पाती।
महिला: सांस के बिना मैं एक मिनट भी नहीं सर्वाइव कर पाऊंगी।
महिला: सांस लिये बिना हम यहां पर 30 सेकेंड्स रोकने की कोशिश करते हैं योगा के थ्रू पर वो भी नहीं हो पाता है।
प्रेम रावत:
अगर कोई मर गया बिना हवा के, ऑक्सीजन के तो उसके लिए भी मेडिकल टर्म है — सफोकेशन। पर अगर कोई मर गया बिना टीवी देखने के तो उसके लिए कोई मेडिकल टर्म नहीं है। क्योंकि वो इम्पॉर्टेन्ट नहीं है। मैं बात कर रहा हूं आपकी ज़रूरतें, और आपकी चाहतों की।
साक्षात्कार:
पुरुष: मैं रह ही नहीं पाऊंगा बिना टीवी के।
पुरुष: फ़ोन के बिना तो आइ थिंक मैं सोच सकता हूं कि लाइफ मेरी मॉम मेरे से छीन चुकी हैं।
पुरुष: पहले कैसा था, रोटी, कपड़ा, मकान। अभी रोटी, कपड़ा, मकान एंड मोबाइल।
पुरुष: वॉटसअप चाहिए होता है सबसे पहले। फ़ोन के बिना आज के टाइम में कुछ नहीं है।
महिला: फ़ोन तो लाइफ...।
महिला: लाइफ है आजकल की।
महिला: इंटरनेट इज़ वैरी नेसेसरी।
महिला: फेसबुक, वॉटसअप क्यों ? क्योंकि हमारा टाइम पास नहीं होता है।
महिला: फ़ोन ही सबकुछ हो गया है। फ़ोन ही गर्लफ्रेंड हो गया है, फ़ोन ही बॉयफ्रेंड हो गया है।
महिला: खाने के बिना रह सकते हैं पर फ़ोन के बिना नहीं रह सकते।
महिला: मतलब मैं सबकुछ भूल सकती हूं पर फ़ोन के बिना घर से बाहर इम्पॉसिबल नहीं।
प्रेम रावत:
मेरी ज़रूरत है — ‘शांति!’ ये लग्ज़री नहीं है। क्योंकि अगर ज़ीवन में शांति का अनुभव नहीं कर सकता हूं तो जहां भी जाऊंगा, मैं बिखरा रहूंगा।
On screen text: ज़रूरतें और चाहतें . . . आप किसे ज्यादा महत्व देते हैं ?
प्रेम रावत:
हमारी सारी जिंदगी हम एक ही चीज से तौलते हैं। हार-जीत! हार-जीत! हार-जीत! हमारी जीत हो। हमारी जीत हो। हम सक्सेसफुल हों। इसको हम जीत समझते हैं। आशीर्वाद! आशीर्वाद देते हैं लोगों को। क्या ?
"तुम्हारी मनोकामना पूरी हो!"
मनोकामना मतलब, मन की कामना पूरी हो। हृदय की नहीं, मन की कामना। मुझे कोई व्यक्ति समझा दे कि क्या ऐसा भी मन होता है, जिसकी सारी कामना पूरी हो चुकी हों।
मन के बहुत तरंग हैं, छिन छिन बदले सोय।
एक ही रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय।।
बात विभिन्न तरंगों की नहीं है, बात है ‘छिन-छिन बदले सोय’। बदलता रहता है, बदलता रहता है, बदलता रहता है। आज ये है, आज वो है, आज वो है, आज वो है, आज वो है, आज वो है।
माता-बहनें — मैंने देखा हुआ है। जाती हैं साड़ी खरीदती हैं। साड़ी कैसे खरीदी जाती है ?
आप दुकान में जाते हैं, दुकानदार से कहते हैं, "साड़ी दिखाओ!"
वह आपको एक साड़ी दिखाता है। आप उसको खरीद लेते हैं। ऐसे ही तो है न ? ना!
"और दिखाइए! कोई बढ़िया दिखाइए! और कौन-कौन से रंग हैं आपके पास ?"
ये माता-बहनों की ही बात नहीं है। जब लोग टाई खरीदने के लिए जाते हैं, वही बात होती है। औरतें तो साड़ी पहनती हैं, मर्द टाई पहनते हैं। वही उनके लिए साड़ी है। वो उसी को — ऐसी होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए, ऐसी होनी चाहिए।
तो हमारे लिए जीत क्या है ? जीत वो है कि जब हमारी मन की कामनाएं पूरी हों तो हमारी जीत हो गयी। और हमारी मन की कामना पूरी नहीं हो रही है तो हम हार रहे हैं। जब आप समझ जाएंगे और अपना जीवन अपने मन से नहीं, पर अपने हृदय से जीना शुरू करेंगे — जिस दिन आप प्यार अपनी जिंदगी के अंदर अपने हृदय से करना शुरू करेंगे, उस दिन आपको सच्चे प्यार का अहसास होगा। जिस दिन आप अपने मन से नहीं, पर अपने हृदय से जीना शुरू करेंगे, जिंदगी क्या है, आपको समझ में आएगी।
हृदय भी है मनुष्य के पास। मन भी है मनुष्य के पास, हृदय भी है मनुष्य के पास। मन का उपयोग कैसे करते हैं, यह सबको भलीभांति मालूम है। पर हृदय का प्रयोग कैसे होता है, ये किसी को — बहुत बिड़ला कोई मिलेगा, जिसको मालूम हो। जो एक ही रंग में रहना जानता हो, बहुत बिड़ला है। बिड़ला मतलब — रेयर! आसानी से नहीं मिलेगा।
तो अगर आप अपनी हार से बाहर जाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको यह समझना पड़ेगा कि असली जीत क्या है। और असली जीत है — जब मैंने अपने मन को नहीं, अपने हृदय को शांत कर लिया है, जब मैंने अपने हृदय की पुकार को सुनना शुरू कर दिया है। नहीं तो मेरे को सारे जीवन में — बात यह है जी कि कई बार हम समझते हैं कि हम जीत गए। और जीत के भी फिर अहसास बाद में जाकर होता है कि वो जीत नहीं थी, वो तो हार है। उस समय लगा कि जीत गए।
जब नयी-नयी लोगों की शादी होती है, बच्चे होते हैं। बड़ा प्यार है बच्चे से। बड़ा नटखट है, बड़ा ये है, वो है। वो नटखट कितना नटखट है। जरा 16-17-18 साल तक पहुंचने दो, अपने आप पता लगेगा।
मां कई बार बड़े प्यार से अपने बच्चे के बारे में बोलती है, "ये मेरी बात सुनता नहीं है।"
हां! जरा पहुंचने दो 18 साल तक, तब पता लगेगा। क्यों ? अगर बच्चे से प्यार नहीं है, बच्चे को क्या बनना चाहिए, सिर्फ उसी चीज से प्यार है तो तुम्हारी हार निश्चित है।
सबसे बड़ी बात है कि एक बार लोगों से पूछा गया कि "तुम कितने दिन जीओगे ?"
तो अगर 70 साल भी अगर जिए, उसके बनते हैं लगभग — 25 हजार 550 दिन। और अगर सौ साल भी जिये तो 36 हजार 500 दिन। 36,500। पर जब लोगों से पूछा गया कि अगर सौ साल भी जीओ तो कितने दिन जीओगे ?
तो लोगों का पहला कैलक्युलेशन था — तीन लाख। 3,65,000। थ्री हंड्रेड सिक्सटी फाइव थाउजेंड। वो जीरो एक और लगाना चाहते थे, जो जीरो लगता नहीं है। क्योंकि सबकी ख़्वाहिश है — सिर्फ इतने ही दिन थोड़े जीना है। क्या है मनुष्य के साथ ?
वही वाली बात। एक योद्धा की कहानी कि चाहे वो कितना भी लड़े, कैसे भी लड़े, खूब लड़े, परंतु उसको मरना है।
समझिए आप! कितनी गंभीर बात यह है कि वो लड़ाई कर रहा है। और वो लड़ रहा है। क्यों ? ताकि उसकी जीत हो! तो लड़ रहा है, लड़ रहा है, लड़ रहा है। मार रहा है, और लोगों को मार रहा है, खूब लड़ रहा है, खूब लड़ रहा है, खूब लड़ रहा है। परंतु उसको कोई आकर के अगर यह बताए कि "तू जितना चाहे लड़ ले, पर तेरे को इसी रणभूमि में गिरना है। कट के गिरेगा!" अर्थात्, कितना भी वो लड़ ले, उसकी जीत नहीं होगी।
वो योद्धा कौन है ? आप हो। मैं हूं। और हम क्या कर रहे हैं ? हम लड़ रहे हैं। और कोई हमको आकर बताता है, "लड़ ले! खूब लड़ ले! पर जीत नहीं होगी तेरी।"
तो क्या करोगे ? क्या करोगे ? लड़ते रहोगे ? और अगर वही प्रश्न उससे पूछा जाए कि ‘‘अगर मेरे को इस रणभूमि में गिरना ही है तो मेरी जीत कैसे संभव है ?” और अगर वही व्यक्ति उसको कहे कि तू लड़ाई में नहीं जीत सकता, क्योंकि तेरे को इसी रणभूमि में गिरना है। तू लड़ाई में नहीं जीतेगा। कोई नहीं जीतेगा। तू हारेगा भी नहीं, पर तू जीतेगा भी नहीं। क्योंकि सभी को इस रणभूमि में गिरना है।
तो अगर तू अपनी जीत चाहता है तो जो तू जीता हुआ है — और यह भी कितनी सुंदर बात है। देखिए, शब्दों का खेल है! तू अगर अपनी जीत चाहता है तो तू समझ कि तू जीता हुआ है। अब इसके दो शब्द हो गए। एक तो कि पहले ही तुम्हारी जीत हो रखी है और दूसरा कि तुम जीते हुए हो। अर्थात्, तुम जिंदा हो! जिंदा होने में ही तुम्हारी जीत है। लड़ाई में तुम्हारी कभी जीत नहीं होगी। लड़ाई में जीत नहीं होगी। ये जानने में तुम्हारी जीत होगी, ‘‘तुम जीते हुए हो।’’ तो वही, ‘‘जीते हुए हो।’’ मतलब, जीते हुए हो — ‘‘पहले से ही तुम्हारी जीत हो रखी है’’ या फिर दूसरा कि ‘‘तुम जिंदा हो! जीते हो!’’ इसको जानो! इसको समझो कि ये क्या है।
असली जीत है — जब मैंने अपने मन को नहीं, अपने हृदय को शांत कर लिया हो।
प्रेम रावत:
जमीन में कुछ न कुछ उगना है। हल चला लो, पानी दो, बीज़ मत डालो। कुछ न कुछ जरूर उगेगा। कुछ न कुछ जरूर उगेगा। बात यह है कि जो उगेगा वो खाने लायक नहीं है।
तो किसान क्या करता है ? उसको मालूम है कुछ न कुछ जरूर उगेगा। सबसे पहले वो उग जाए, जो खाने लायक हो तो अच्छा रहेगा। तो वो बीज़ डालता है, पानी देता है और क्या करता है कि वो चीज़ जो खाने लायक नहीं है वो न उगे तो उसको निकालता रहता है। ताकि क्या उपजे जो खाने लायक है।
तुम भी किसान हो और तुम्हारी ज़िंदगी खेत है। और यह स्वांस रूपी हल चल रहा है और इस खेत में कुछ न कुछ जरूर उगेगा। ज़ीवन तो निकल रहा है इसको कोई रोक नहीं सकता। समय है, आ रहा है और जा रहा है, आ रहा है और जा रहा है। आता रहेगा और जाता रहेगा। इसको कोई रोक नहीं सकता, इसको कोई थाम नहीं सकता। और ऐसे ही तुम्हारे अन्दर यह स्वांस आ रहा है और जा रहा है, आ रहा है और जा रहा है, आ रहा है और जा रहा है। और सबसे बड़ी चीज़ जो मनुष्य के लिये हो रही है वो है, कि उसका ज़ीवन इस समय मौजूद है।
तुम्हारी ज़िंदगी खेत है और यह स्वांस रूपी हल चल रहा है और इस खेत में कुछ न कुछ जरूर उगेगा। प्रश्न यह है क्या ?
प्रश्नकर्ता:
मुझे अकेलापन महसूस होता है, इस अकेलेपन से बचने का क्या उपाय है?
प्रेम रावत:
देखिए! यह एक बहुत इन्टरेस्टिंग सवाल है। और इन्टरेस्टिंग यह इसलिए है कि हम करते क्या हैं अपने जीवन में ? तो, पहले तो हम बच्चे रहते हैं — खेलते हैं, कूदते हैं, फिर हमारा स्कूल आना-जाना होता है। वहां मित्र बनाते हैं, पढ़ाई करते हैं, जिम्मेवारियों को समझते हैं, गृहकार्य मिलता है। धीरे-धीरे-धीरे करके हमारी पढ़ाई और आगे बढ़ती है। हम और कल्चर्स के बारे में पढ़ते हैं। हम इतिहास के बारे में पढ़ते हैं। हम जॉग्रफी के बारे में पढ़ते हैं। धीरे-धीरे करके वो भी बढ़ती हैं चीजें। और लोगों के बारे में सुनते हैं और करते-करते-करते हमारे एम्बिशन्स भी बहुत बढ़ते हैं — हमारी धारणाएं, हमारे विचार, हमारी इच्छाएं! हम ऐसा बनना चाहते हैं। हम ऐसा बनना चाहते हैं और स्कूल और यूनिवर्सिटीज़ का काम ही यह है कि वो माइंड को शेप करें।
तो धीरे-धीरे-धीरे करके हमको यह लगने लगता है कि ‘‘अच्छा! हम ये बनेंगे! हम डॉक्टर बनेंगे, हम इंजीनियर बनेंगे! हम ये करेंगे, हम ये करेंगे! हम उस जैसा बनना चाहते हैं। हम उस जैसा बनना चाहते हैं।’’ तो फिर इन चीज़ों को ले करके आगे — यूनिवर्सिटीज़ में जाते हैं, ग्रेजुएट होते हैं और बाहर आकर के जॉब लेते हैं, नौकरी करते हैं।
तो अगर इस सारी चीज को देखा जाए तो ये हुई — रिवर्स इंजीनियरिंग! पर रिवर्स इंजीनियरिंग का मतलब कि आपका लक्ष्य ये है और आप इतना सबकुछ कर रहे हैं, उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए। तो ये लक्ष्य और इतना सबकुछ आपको करना पड़ रहा है। इसमें आप अपना समय का भी बलिदान कर रहे हैं। इसमें आप अपनी एनर्जी का भी बलिदान कर रहे हैं। इसमें आप अपने रिश्तों का भी बलिदान कर रहे हैं और करते-करते, करते-करते और फिर आप उस लक्ष्य तक पहुंचते हैं। अब आपके दिमाग में यह था कि जब वो लक्ष्य पूरा कर लेंगे तो फिर हम बहुत ही खुश हो जाएंगे। सबकुछ ठीक हो जाएगा! फिर कोई चिंता करने की चीज नहीं रहेगी। परंतु उस लक्ष्य तक जितने भी पहुंचे हुए हैं, वो कभी यह नहीं कहते हैं कि ऐसा होता नहीं है। वो सारी चीज़ें तब भी बनी रहती हैं।
तो एक प्रश्न उठता है कि ‘‘क्या इस जिंदगी को रिवर्स इंजीनियरिंग के लिए — यह उचित है या किसी और चीज के लिए ?’’ मतलब, ये भी संभव है कि आप अपनी जिंदगी में तो — रिवर्स इंजीनियरिंग तो हुई, ये लक्ष्य हुआ और ये ऐसा हो गया। और अगर जरा विचार करिए! बजाय ऐसे के, अगर ऐसा हो तो क्या हो ? मतलब, आप क्या नहीं हासिल कर सकते हैं ?
अगर आपने अपने जीवन के अंदर खुशी हासिल कर ली, अपने जीवन के अंदर अपने आपको पहचान लिया, अपने जीवन के अंदर कुछ ऐसा कर दिया कि जो आपके सपने थे, वो टूट गए और सपने से भी बहुत बड़ी चीज आपने हासिल कर ली।
तो मैं समझता हूं कि जिंदगी की ये पोटेंशियल है। आपके लाइफ की ये पोटेंशियल है। ये संभावना है! ये नहीं, ये संभावना है कि एक चीज नहीं, बहुत-कुछ आप हासिल कर सकते हैं। परंतु इसके लिए रिवर्स इंजीनियरिंग नहीं, इसके लिए आपको दिल से काम करना पड़ेगा।
जो आपका — जो आप दिल से काम करेंगे, वो काम नहीं है। उसको आप इंज्वाय करेंगे, उसका आप पूरा-पूरा फायदा उठाएंगे।
तो ये कैसे हो ? और जो कुछ भी और जो समस्याएं हैं — आज के यूथ में ये है। सब लोग ये कर रहे हैं — रिवर्स इंजीनियरिंग, रिवर्स इंजीनियरिंग!
बताइए मेरे को क्या — और ये इसके लिए तो कोर्सेज भी हैं। जो आप कोर्स ले सकते हैं कि ये हासिल करने के लिए आपको क्या-क्या, क्या-क्या करना पड़ेगा। सारी जिंदगी को रिवर्स इंजीनियरिंग कर रखा है।
परंतु जिंदगी की पोटेंशियल, संभावना रिवर्स इंजीनियरिंग के लिए नहीं है, जिंदगी की पोटेंशियल इसके लिए है। और जबतक आप इस पर नहीं आएंगे, तो ये तो और जो चीज़ें हैं, अब जैसे — परिवार से अलग होना या अपने आपको लोनली महसूस करना! लोनली महसूस तो वो लोग भी करते हैं, जो अपने परिवार के साथ हैं। क्योंकि वो भी रिवर्स इंजीनियरिंग कर रहे हैं। वो समझते हैं कि ‘‘मैं यहां अटका हुआ हूं।’’ कोई गांव में है, वो पढ़-लिख तो लिया, पर वो देख रहा है कि यहां कोई संभावना तो है नहीं उसके लिए, पर वो अटका हुआ है। तो मां-बाप के साथ तो है, परिवार के साथ तो है, परंतु ध्यान कहां है ? कहीं और है — ‘‘काश! मैं भी वहां होता!’’ दूसरा वो, जो अटका हुआ नहीं है, जो चले गया — ‘‘काश! मैं वो होता!’’ तो ये ‘‘काश’’ तो दोनों ही कर रहे हैं! काश, काश, काश, काश!
तो बात वो नहीं है कि वो माहौल बदल जाए या वो माहौल बदल जाए। आप अपने में देखिए! कि आप क्या कर सकते हैं ? आप अपने में देखिए कि क्या संभावना है ? आपको लोनली होने की जरूरत नहीं है। आप कहीं भी हों, क्योंकि आप अपने साथ हैं। आपका प्रकाश आपके अंदर है। आपकी दोस्ती आपके अंदर है, आपका प्यार आपके अंदर है, आपकी खुशी आपके अंदर है, आपकी सक्सेस आपके अंदर है। इसीलिए, इसीलिए कितना जरूरी है कि आप अपने आपको जानें! और इस संभावना को, अपनी जिंदगी की संभावना को पूरा करें। उसके बिना ये तो सारे चक्कर बने रहेंगे। कोई ये चाहता है, कोई ये चाहता है, कोई ये चाहता है, कोई ये चाहता है।
अब देखिए! आप जा रहे हैं कहीं, आपने एक खिड़की में देखा, दुकान में देखा, एक सूट है। अच्छी सूट है। आपने खरीद ली। तो उसका यह मतलब थोड़े ही है कि आप और सूट नहीं खरीदेंगे। दो महीने के बाद, तीन महीने के बाद, एक साल के बाद — हो सकता है वो सूट आपको फिट न हो। फिर आप देखें दूसरी। वो पहन लेंगे, वो खरीद लेंगे।
तो पहली वाली क्यों खरीदी ? क्योंकि उस समय वो सूट आपको सूट कर रही थी। तो आपकी परिस्थितियां बदली तो कुछ और बदल गया। कुछ परिस्थिति बदली तो कुछ और बदल गया। कुछ और बदल गया तो कुछ और बदल गया। तो कुछ और बदल गया तो कुछ और बदल गया। तो कुछ और बदल गया तो कुछ और बदल गया। कुछ और बदल गया तो कुछ और बदल गया। ये तो सारी बदलती रहेंगी। अब एक लहर एक जगह आती है। उसी पर आँख बनाए रखना कि दूसरी भी वहीं आएगी, गलत है। वो वहां नहीं आएगी। वो लहर कहीं और आएगी, कहीं और आएगी, कहीं और आएगी। तो समुद्र की लहरों को गिनने से मतलब ?
यह भवसागर भी एक भवसागर है। इसमें भी लहर आती रहती हैं, जाती रहती हैं, आती रहती हैं। यह तो इसकी प्रकृति है। काहे के लिए गिन रहे हो उन लहरों को ? अगर कुछ करना है इस भवसागर के लिए तो वो करिए कि आपकी नौकाएं लहरों के कारण न डूबें। लहरों को गिनने से क्या फायदा ? अपनी पतवार से लहरों को ऐसे ऊपर से मारने से क्या फायदा ? उससे क्या होगा ? बस! कुछ अगर प्रबंध करना है तो कुछ ऐसा प्रबंध करना है कि जिस नौका में आप बैठें हैं, वो डूब न जाए, इन लहरों के कारण। और ये वही डूबने की बात है, जो अपने आपको अकेलापन महसूस करना — तो यह सब मन का खेल है।
मन के बहुत तरंग हैं, छिन छिन बदले सोय।
एक ही रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय।।
इस मन की तो लहर आती रहती है। किसी को कुछ दुःख है, किसी को कुछ दुःख है। किसी को कुछ दुःख है, किसी को कुछ दुःख है। दुःख तो सबको परेशान करता है। सुखी कौन है ? सुखी वही है, जो अपने अंदर की चीज को जानता है। जो उसके अंदर विराजमान है, जो उसके अंदर बैठी है, उसको जानता है।
प्रश्नकर्ता:
मुझे छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आता है। मुझे पता है गुस्सा करना गलत है पर फिर भी मैं गुस्सा करता हूं। मैं गुस्से को कंट्रोल कैसे करूं ?
प्रेम रावत :
सबसे पहला मेरा यह प्रश्न होगा कि ‘‘आप यह कंट्रोल क्यों करना चाहते हैं ? मतलब, गुस्से में ऐसी क्या बात है, जो आपको पसंद नहीं है ? भाई, आपका स्वभाव है। अगर आपका स्वभाव नहीं होता तो आप गुस्सा कैसे करते ? तो ऐसी क्या चीज़ है, जो गुस्सा करने पर आपको पसंद नहीं है ?’’
मैं आपसे यह प्रश्न इसलिए पूछ रहा हूं, क्योंकि यह प्रश्न मैंने अपने आपसे पूछा। गुस्सा मेरे को भी आता है और लोग ऊटपटांग काम करते हैं तो उससे भी गुस्सा आता है। तो एक दिन मैंने अपने आपसे पूछा कि ठीक है, लोग तो ऊटपटांग काम करते ही हैं — अब जिसकी समझ में नहीं आया, कुछ न कुछ करेगा। वो गलत करेगा। पर तुमको गुस्से से गुस्सा क्यों है ? तो समझ में यह आया कि मुझको गुस्से से गुस्सा इसलिए है, क्योंकि गुस्सा करने के बाद जैसा मैं महसूस करता हूं, वो मुझे पसंद नहीं है। जब गुस्सा हो रहा होता है तो मेरे को मालूम ही नहीं है कि गुस्सा कब आता है ? पर जब चला जाता है, तब मेरे को महसूस होता है कि — ‘‘हां!… ऑ… ऑ… ऑ… हा…हा… ये अच्छा नहीं था।’’
तो गुस्से के बाद जो होता है, उससे मुझे नफरत है। क्योंकि मैं एक ऐसी चीज बोल जाऊंगा, जो मैं कभी बोलना नहीं चाहता। मैं ऐसी चीज़ कर जाऊंगा, जो मैं कभी करना नहीं चाहता। मतलब, गुस्सा एक ऐसी चीज़ है, जिसमें कि मैं अपने आपको खो देता हूं। जो कुछ भी मैंने अपने से प्रण किया है, जो भी मैंने अपने से कहा है कि ‘‘नहीं, ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है’’, वो मैं तोड़ देता हूं। क्योंकि वो एक ऐसा समय है कि मैं अपना संतुलन खो देता हूं। तो सबसे बड़ा प्रश्न तो मेरे को यह पूछना है अपने से कि ‘‘मेरे लिए, मेरे संतुलन की क्या कीमत है ? मेरे संतुलन के लिए। बात काम की नहीं है, बात औरों की नहीं है। मेरे लिए मेरे संतुलन की क्या कीमत है ?’’ अगर यह मेरे लिए मूल्यवान है तो मुझे मेरा संतुलन खोना अनिवार्य नहीं है।
इसके लिए मैं क्या करूं ? क्या करूं ? बोलने से पहले गुस्से की हालत में — अगर मैं अपने को दो क्षण भी दूं, दो सेकेंड सोचने का, मैं समझ सकता हूं। बात यह वही है कि जब मनुष्य क्रोध में होता है, वो अपने आप से अलग है। वो — वो है, जो वो नहीं होना चाहता है। वो — वो है, जो उसके स्वभाव में नहीं है। और उससे बचने के लिए, उससे बचने के लिए जो कुछ भी उसको करना पड़े। ऐसे भी लोग हैं, जिनको देखते ही गुस्सा आता है। तो फिर पैर तो आपके हैं! वहां क्यों जाते रहते हो ? जाओ! ऐसी संगत में बैठो, ऐसी संगत में बैठो, ऐसी कंपनी में बैठो, ऐसी संगत में बैठो, जिसमें आप उभरो! अंदर से उभरो! कोई चीज़ अच्छी समझो! ऐसी संगत में नहीं, जहां कि आप अपने से दूर होते जा रहे हैं। ये कुसंगत है!
हर एक आदमी के पास यह उपाय है कि वो अपनी कुछ संगत बनाए। चाहे वो जेल में ही क्यों न हो, जहां कोई भी समझेगा कि यह तो असंभव बात है! परंतु सबसे बड़ी बात है — और फिर यह वही उदाहरण है कि एक मोमबत्ती जो जली हुई है, वो दूसरी मोमबत्ती को जला सकती है। जब मोमबत्तियां जलने लगती हैं तो अंधेरे का आना असंभव हो जाता है।
परंतु ऐसी चीज़ें हैं, जो मेरा ध्यान, जहां होना चाहिए, वहां से अलग करती हैं। तो या तो मैं अब उन चीज़ों की लिस्ट बनाऊं और उन चीजों की लिस्ट अपनी जेब में रखूं और जब कैसी भी परिस्थिति हो, देखूं, आज ये लिस्ट में है या नहीं है। या फिर मैं ये बात समझूं कि मैं चाहता क्या हूं ? हर पल, हर क्षण अपने ज़ीवन में सुबेरे से लेकर शाम तक मैं चाहता क्या हूं ? और यह चाहत मेरी एक ऐसी है, जो मेरे साथ हमेशा बंधी रही है । चाहे मैं कितना भी छोटा था, चाहत यही थी कि ‘‘मैं खुश रहना चाहता हूं। मैं आनंद में रहना चाहता हूं।’’
मेरे गुरु महाराज जी ने, मेरे पिता जी ने मेरे को बताया कि वो आनंद का स्रोत मेरे अंदर है। जिस आनंद को मैं चाहता हूं, वो आनंद का स्रोत मेरे अंदर है। वो बाहर नहीं है। जब बाहर की चीज़ों को बदलना मैंने बंद किया — क्योंकि पहले तो यही था कि मैं ये कर दूंगा, मैं ये कर दूंगा तो अच्छा हो जाएगा। ये कर दूंगा तो अच्छा हो जाएगा। और जब अंदर की चीज़ों में ध्यान देना शुरू किया तो अपने आप फिर वो जो हृदय रूपी प्याला है, वो आनंद से भरने लगा। क्या वो हमेशा भरा रहता है ? नहीं। क्या वो परिस्थितियां आज भी आती हैं, जिनसे कि गुस्सा हो ? बिल्कुल! क्योंकि वो चीज़ मेरे को मालूम पड़ गई है कि जो चीज़ चाहिए मेरे को, वो मेरे अंदर है तो मैं कम से कम उस तरफ कोशिश कर सकता हूं। और जितनी कोशिश मैं करता हूं अपने अंतर्मुख होने की, अंदर जाने की — अंदर जो मेरे सद्भावना है, उसको उभारने की, तो वो कोशिशें सफल होती हैं। अगर मैं ऐसी चीज़ की तरफ कोशिश करूं, जो संभव नहीं है तो वो कोशिश अपने आप असफल होगी। तो अगर मैंने अपनी जिंदगी के अंदर कोशिश की है कि मेरी सारी समस्याएं चली जाएं तो वो सफल नहीं होंगी।
अब लोग यही सोचते हैं कि अगर मेरे पास धन हो तो मेरी मुश्किलें सब खतम हो जाएंगी। देख लीजिए आप! अखबार पढ़िए! लोग हैं, जिनके पास इतना पैसा है, इतना पैसा है कि कई-कई बार उनको खुद नहीं मालूम कि उनके पास कितना पैसा है। तो क्या उनके पीछे समस्याएं नहीं लगी हुई हैं ? बिल्कुल समस्याएं लगी हुई हैं। किसी को — उनका नाम कीचड़ में न उछल जाए — यह उनको समस्या रहती है। कोई उनसे ज्यादा अमीर न हो जाए — यह उनकी समस्या लगी रहती है। समस्याएं तो सबके पीछे लगी हुई हैं। परंतु एक ऐसी भी जगह है, जहां समस्या नहीं हैं। समस्या को हटाने के लिए लोग कोशिश करते आए हैं और सफल नहीं हुए हैं। परंतु जो अंतर्मुख हो करके उस चीज़ को समझते हैं कि आनंद जो मेरे को चाहिए, खुशी जो मेरे को चाहिए — मैं खुश रहना चाहता हूं, वो मेरे अंदर है। और उस तरफ मैं जितनी कोशिश करूंगा, वो सब सफल होंगी, बाहर की तरफ मैं जितनी कोशिश करूंगा, वो सब सफल नहीं होंगी ।
टेक्नोलॉजी का सही इस्तेमाल कैसे हो सकता है ?
प्रश्नकर्ता :
आज का दौर साइंस और टेक्नोलॉजी का है। लेकिन जैसे-जैसे हम उन्नति करते जा रहे हैं, आगे बढ़ते जा रहे हैं, अपने आपसे दूर होते जा रहे हैं। तकनीक का इस्तेमाल विनाश के हथियार बनाने के लिये भी हो सकता है और मनुष्य के कल्याण के लिये भी। हम किस तरह से तकनीकी प्रगति का इस्तेमाल मानवता और शांति के लिये कर सकते हैं ?
प्रेम रावत :
यह तो वो वाली बात है न कि अगर मैं किसी चीज की जरूरत नहीं समझता हूं, मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है तो फिर मैं उसकी तरफ ध्यान नहीं दूंगा। यही बात होती है कि क्या हम इस बात को इसकी जरूरत समझते हैं कि इस संसार के अंदर शांति होनी चाहिए ? क्या यह हमारे लिए कोई महत्व रखती है या नहीं या सिर्फ यह है कि मैं इस चीज का आविष्कार करूंगा तो मेरे को मान्यता मिलेगी, मेरे को पैसा मिलेगा, मेरे को मान-सम्मान मिलेगा ?
तो अब एक वही व्यक्ति, जो चक्कू बनाता है, वह तलवार भी बना सकता है। चक्कू घर में भोजन बनाने में मदद करेगा और एक दूसरे को मारने में मदद करेगा। परंतु यहां क्या हो रहा है ? यहां (दिमाग में) क्या बसा हुआ है ? अगर सिर्फ बात है मान-सम्मान की, बात है पैसे की तो फिर आदमी के लिए कोई लिमिट ही नहीं है।
"बनाओ, ये बनाओ! ठीक है, ये बम हजारों लोगों को मार सकता है।"
और अगर बात है कि नहीं, मेरी भी कोई जिम्मेवारी है तो लोग फिर उस टेक्नोलोजी को उस तरीके से इस्तेमाल करने लगेंगे, जिसमें लोगों का भला होगा। तो दोनों ही बातें हैं।
अब एक कैप्टन है, अगर वो समझता है कि जो उसके पैसेंजर हैं, जहाज में पैसेंजर हैं, वो उसकी जिम्मेवारी है और उसकी जिम्मेवारी है कि वो उनको सुरक्षित रखे तो वो उस पर ध्यान देगा। और अगर उसके दिमाग में यह बात नहीं है, कोई और फितूर चढ़ा हुआ है तो वही जहाज, वो पत्थरों पर चढ़ा सकता है, सबको मार सकता है।
तो यह तो बात मनुष्य की है। अब उसको अगर समझ में नहीं आई है बात तो फिर वो वही करेगा, जो उसकी मर्ज़ी आती है। जिसमें वो यह देखता है शॉर्टकट क्या है ?
"मेरे को मान-सम्मान चाहिए!" अब लोगों को मान-सम्मान चाहिए!
लोग कहते हैं, "अजी! आपको ये पदवी मिली हुई है! आपको शांतिदूत की पदवी मिली हुई है।" शांतिदूत की पदवी का मतलब क्या है ? शांतिदूत की पदवी का मतलब है कि जहां जाओ, और शांतिदूत बनाओ! ये है। और मैं यही लोगों को प्रेरित करता हूं — तुम भी शांति के इस मार्ग में मदद करो।
तो अगर यह हमारी समझ रही तो कोई भी टेक्नोलोजी हमारे पास आएगी, हम उसका सदुपयोग करेंगे। दुरूपयोग नहीं करेंगे! परंतु अगर हमारी समझ खराब है तो दुरूपयोग होगा।